Friday, August 19, 2011

वेद और स्वामी दयानन्द -book ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल Ex Arya pandit (1-2)

नये ज़माने में ‘‘सत्यार्थ प्रकाशः समीक्षा की समीक्षा’’ के बाद इस नायाब पुस्तक को हिन्दी में देख कर उम्मीद की जाती है हिन्दी प्रेमी बहुत खुश होंगे, साथ ही यह भी उम्मीद है कि सच्चाई तलाश करने वाले को पूरी उम्मीद है सच्चा रास्ता आसानी से मिलेगा,

ग़ाज़ी महमूदी धर्मपाल जो इस्लाम के खि़लाफ़ आर्यसमाज की सहायता से कई किताबों के लेखक थे आपको सभी किताबों के इस्लामी स्कॉलरों ने जवाब भी दिये थे, मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी लेखक ‘हक प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश‘ से 11 साल के बहस मुबाहिसे के बाद आप इस्लाम की सच्चाई को मान कर फिर से मुसलमान हुए और अपने 11 साल के आर्यसमाजी अनुभव से इस्लाम को अपनी कई किताबों से तक़वियत बख़्शी।

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नोट- यह पुस्तक आर्य समाज उस समय के के भाष्य को सामने रख कर लिखी गयी हैं,,, आज के भाष्य को इन पंक्तियों से समझें
''आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्‍दी में ही वेद और गीता के इस पारस्पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं
स्वामी दयानंद सरस्वती के शिष्य प. भीमसेन शर्मा ने इस और सब से प्रथम ध्यान दिया और कदम भी उठाया, उन्‍होंने देखा कि गीता का ईश्वर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्वर के सिद्धांत के विपरीत है अत- उन्होंने जिस जिस श्लोक में भी 'अहं' या पद 'मा' पद देखा उस उस श्लोक को झट अर्ध चन्द्र दे कर बाहर निकाल दिया और लगभग 238 श्लोकों को प्रक्षिप्त बता कर निकाल बाहर किया,
इस दिशा में एक दूसरे आर्यसमाजी विद्वान प. आर्य मुनि ने इस यक्ष पशन के समाधान के लिए एक और ढंग अपनाया, उन्होंने जहां 'अहं' पद देख वहां उस का अर्थ ' ईश्वर' कर दिया और जहां मा शब्द मिला, वहां उसका अर्थ वैदिकधर्म कर दिया (देखें प. नरदेव शास्‍त्री वेदतीर्थ कृत 'आर्य समाज का इतिहास, पृ. 235)  ''
आर्य समाज के भाष्‍य के भाष्‍य में अनुवाद ऐसे हुआ जैसे कोई कहे कि रामायण में 'दशरथ' का अर्थ कोई भी 'दस रथों वाला' व्यक्ति
''स्वामी दयानंद के सामने एक समस्या खडी हो गई, वह यह कि यदि वेद सृष्टि के आरंभ में प्रकट किए गए तब उन में ऐतिहासिक व्यकितियों के नाम नहीं होने चाहिए, परन्तु जैसा की उपर दिखाया जा चुका है, वेदों में च्यवन, विमद, तुग, भुज्यु आदि सैकडों व्यक्तियों के नाम विद्यमान हैं, पुराने भाष्यकारों ने इस शंका का समाधान यों किया कि च्यवन, विमद आदि व्यक्ति प्रतयक कल्प में होते हैं,
 इस प्रकार वेदों में इतिहास है तो सही, परंतु वह नित्य इतिहास है, जो प्रत्येक सृष्टि में दोहराया जाता है, इस प्रकार वेदों को ईश्वरकृत भी मान लिया गया और नित्य इतिहास से युक्त भी, पर स्वामी दयानंद को यह युक्ति नहीं जंची, इस लिए उन्होंने तुग्र, भुज्यु आदि व्यक्तिवाचक नामों के अर्थ धातुओं के अर्थ के आधार पर और के और कर दिए, उदाहरणार्थ, उन्होंने 'तुग्र' का अर्थ 'शत्रुहिसंक सेनापति' कर दिया और उसके पुत्र 'भुज्यू' का अर्थ 'राज्यपालक व सुखभोक्ता', यह बात ऐसी ही है जैसे कोई कहे कि रामायण में 'दशरथ' का अर्थ कोई भी 'दस रथों वाला' व्यक्ति तथा राम का अर्थ कोई भी रमने वाला मनुष्य है
 स्वामी दयानंद ने भूतकालिक क्रियाओं का अर्थ वर्तमान काल विधिलिंग आदि में कर दिया है इस प्रकार उनका लक्ष्य यह था कि वैदिक इतिहास न रह, उपदेश बन जाए,
निसंदेह उददेश्य प्रशंसनीय था, पर सच्चाई यह है जहां सत्य अर्थ को छोड कर अभीष्ट अर्थ किए जात हैं, वहां पाठकों के पल्ले कुछ नहीं पडता,, यही कारण है कि स्वामी दयानंद तथा अन्य आर्यसमाजियों के विद्वानों के वेदभाष्य न एक दूसरके के अनुरूप हैं न परंपरागत वेदभाष्यों के अनुरूप हैं,,,''
साभार- राकेशनाथ, 'कितने अप्रासंगिक हैं धर्मग्रंथ, पृष्ठ 73 
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विषय सूची ‘‘वेद और स्वामी दयानन्द’’

ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल का परिचय
1. प्रस्तावना ‘वेद और स्वामी दयानन्द
2. स्वामी दयानन्द के क़दमों में
3. स्वामी दयानन्द और उनके मैयार (मानक,Quality)
4. स्वामी दयानन्द और वेद
5. वेद और आलमगीर शांति (विश्व-शान्ति)
6. वेदों पर ईमान की बुनियाद की कमज़ोरी
7. चौबीसवाँ अध्याय
(यजुर्वेद के 24 वें अध्याय की तफ़सीर करने में दयानन्द जी बेबस)
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ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल
(लेखक का परिचय आनलाइन उपलब्ध उर्दू पुस्तक ‘तुर्क-ए-इस्लाम‘ और ‘तिबर-ए-इस्लाम‘ लेखकः मौलाना सनाउल्लाह के हवालों से,,,
मौलाना ने जवाबी तौर पर हक प्रकाश बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश फोरन लिखी थी जो 14 सम्‍मुल्‍लास के जवाबों में सबसे मकबूल रही,,,,जिसका जवाब 45 साल बाद एक आर्टिकल को किसी इस्‍लाम मुखालिफ किताब में घुसा कर,,, फिर उसको भी नए चेलों द्वारा एडिट करके कहा जाता है यह जवाब है,,,,,,इतनी समझ नहीं कि 159 समीक्षाओं की हक प्रकाश में 160 जवाब दिए गए हैं,,बताओ इस जवाबी किताब में 160 में किस नम्‍बर पर बात की गयी ?,,सनाउल्‍ला साहब की पुस्‍तक मुकद्दस रसूल ने तो आर्य समाज की किताबी जंग को ही खतम कर दिया था,)

एक मुसलमान अब्दुल गफूर नामी इक्कीस साला ने गुजरांवाला की आर्यसमाज में दाखिल होकर धर्मपाल बनकर अपना रिसाला मासूमा ‘तर्के इस्लाम‘ शाए किया। जिससे मुसलमलानों में इस सिरे से उस सिरे तक बिजली की तरह आग लग गयी। हर फिरके ने उसके जवाब दिये। सबसे पहले खाकसार राकिम की तरफ से जवाब निकला जिसका नाम था ‘तुर्के इस्लाम‘ इस की दीबाचे में मैंने वजदानी तौर पर यह लिखा था कि ‘मिस्टर धर्मपाल के इस्लाम में वापस आने की वजदानी तोर से हमें उम्मीद है‘
यह फिकरा वजदानी था। मगर इसकी सहत मिसल इलहामी जाहिर हुयी। चुनांचे धर्मपाले इस्लाम में आकर गाजी महमूद बने उनकी वापसी हम उन्हीं के अल्फाज में बतलाते हैं आप लिखते हैंः
‘‘14 जून 1903 को मेरे बारे में जिस किस्म की नुमाईश और जिस किस्म के जलसे या रसम रसूम अदा करने का सवांग रचा गया था। मैं देखता हूं कि इस्लाम में दाखिल होने के लिए मुझे हरगिज़ हरगिज़ इस किसम की नुमाईश, जलसे या रसम रसूम अदा करने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि अमर वाका यह है कि 14 जून 1903 ई. से पूरे ग्यारह साल के बाद यानि 14 जून 1914 ई. को बगेर किसी शख्स की मौजूदगी के तन तन्हा अपने खुदावन्द कुददूस के हूजूर में सदक दिल से दोज़ानू हाकर मैंने जो इकबाल किया था। उसी इकबाल का मैं यहां पर एलान कर देना जरूरी समझता हूं। वह इकबाल यह है कि अशहदू अन्ला इलाहा इलल्लाह व अशहदू अन्ना मुहमदन अब्दुहू व रसूलूहू...........‘‘(अल मुस्लिम, जुलाई 1914)

इस इन्कलाब का सबब किया हुआ और ‘तुर्के इस्लाम‘ ने इस सबब में किया हिस्सा लिया? इसका जिक्र भी उन्हीं के अल्फाज़ में दरज जैल हैः
‘‘जब मोलवी नूरूददीन साहब (क़ादयानी) ने रिसाला ‘नुरूददीन‘ के ज़रिये और मोलवी सनाउल्लाह साहब ने ‘तुर्के इस्लाम‘ वगेरा के ज़रिये इस्लाम और मुल्लाइज़्म के दरमियान खत्ते ममीज़ खींच दिया तो मेरी तसानीफ की क़ीमत एक दियासलाई के बराबर रह गयी। मेरे एतराज़ात का जवाब देने में ‘नुरूददीन‘ के मुसन्निफ का निशाना इल्मी मालूमात की बदोलत बेखता होता था। मगर ‘तुर्के इस्लाम‘ का वार ज़्यादा सितम ढाता था। जबकि वह मेरे किले को जो मैं सख्त जददोजहद के साथ तफसीरों की बिना पर तामीर करता था। सिर्फ इतना सा फिकरा लिखकर मस्मार कर डालता था कि ‘तफसीर का जवाब तफसीर लिखने वालों से लो। कुरआन मजीद इसका जिम्मेदार नहीं है‘ इस एक फिकरे ने ‘तर्के इस्लाम‘ और ‘तहजीबुल इस्लाम‘ को छलनी कर डाला। मैंने नतीजा निकाल लिया कि नुरूददीन के मुसन्निफ के साथ तो बहस चल सकती है मगर ‘तुर्के इस्लाम‘ के मुसन्निफ के साथ जो मुल्लाइज्म का सिरे से ही मुनकिर है। बहस का चलना मुश्किल है मगर लुत्फ यह हुआ कि ‘नुरूददीन‘के मूसन्निफ ने मेरे मुकाबले पर दोबारा कलम न उठाया हालांकि मैं आरजूमन्द था कि उसके साथ बहस का सिलसिला जारी रहे लेकिन ‘तुर्के इस्लाम‘ के मुसन्निफ ने ‘तहज़ीबुल इस्लाम‘ के जवाब पर फिर कलम उठाया मगर मैं उस के साथ बहस करने के लिए तैयार नहीं था। नतीजा यह हुआ कि ‘नुरूददीन‘ के मुसन्निफ ने मेरे मुकाबले पर दोबारा कलम न उठाया। और मैं ने ‘तुर्के इस्लाम‘ के मुसन्निफ के मुकाबले पर कलम उठाने से इन्कार कर दिया। इस तरह हमारी पहली जंग का खातमा हो गया। मगर कुछ अरसे के बाद ‘मुल्लाइज्म‘ को दोबारा रगडने का खयाल मेरे दिल में पैदा हुआ। इस दफा मैंने तारीख से मदद ली और ‘नखले इस्लाम‘ के नाम से जली सडी हुई किताब शाए की। आर्य समाज के अखबारात ने इस किताब का निहायत ज़ोरदार अलफाज़ में रिव्यू किया। मुस्लिम अखबारात ने इसके बरखिलाफ शोर मचाया। मैं चाहता था कि पुराने टाइप के मुल्ला लोग मेरे मुकाबले पर आयें ताकि मुझे इस बात के जानने का मौक़ा मिले कि वह इन बातों का किया जवाब रखते हैं लेकिन बद-किस्मती से इस दफा भी वही ‘तुर्के शीराज़ी‘ मैदान में आ कूदा और यह कहकर कि कुरआन मजीद या इस्लाम तारीख या तफासीर का जवाबदे नहीं है। ‘नखल इस्लाम‘ पर ‘तबरे इस्लाम‘ मार कर चलता हुआ। इस तरह पुराने टाइप के जिन मुलानों को रगडने के लिए मैंने यह दूसरी कोशिश की थी। वह फिर बच गये। आखिर कार जब मैं ने देखा कि ‘मुल्लाइज़्म‘ के मानने वाले तो मैदान में आते नहीं और जो मैदान में आते हैं वह ‘मुल्लाइज्म‘ के मानने वाले नहीं होते तो मैंने इस तमाम बहस का कतई फेसला कर डाला। और ‘तर्के इस्लाम‘ से लेकर अपनी आखरी तसनीफ तक जिस कदर किताबें थीं इन सब को मैंने 14 जून 1911 ई. को जलाकर खाक सियाह कर दिया‘‘(अल मुस्लिम, पृष्ठ 393, दिसम्बर 14 ई.)

किताब ‘तुर्के इस्लाम‘ के अलावा खाकसार की शखसियत ने इसमें कहां तक हिस्सा लिया। यह एक लतीफ दास्तान है। गुज़िस्ता इक्तबास से मालूम होता है कि मिस्टर धर्मपाल 14 जून 1914 ई. को इस्लाम में आकर गाज़ी महमूद के नाम से मोसूम हुए मगर मेरी मुलाकात उनसे बहुत पहले हुयी थी उस मुलाकात की ज़रूरत और शरह खुद उन्हीं के अल्फाज़ में मज़ा देगी जो दरज जैल हैं। आप लिखते हैंः
‘मेरी गुज़िस्ता एक साल की बेऐज़ा जिन्दगी ने मेरे मुसलमान भाईयों के दिलों पर भी मेरे लिए इस कदर मुहब्बत पैदा करदी है कि जब उनको मेरी बीमारी का हाल मालूम हुआ तो वह जोक़ दर जोक़ मेरे पास आने लगे इन में से मोलवी सनाउल्लाह साहब का नाम खासकर काबिले जिक्र है। मोलवी साहब के साथ तहरीरी दस्त पन्जा तो सालहा साल तक होता रहा मगर रू दर रू होने का गालबन यह पहला ही मौका था। जिसको एक मुबारक मौका ही समझना चाहिए। खाह वह बीमारी की शकल में ही नमूदार हुआ हो। मोलवी साबि फितरतन खुश मज़ाक असहाब में से हैं इस लिए समझ लेना चाहिए कि जहां एक तरफ ‘तर्के इस्लाम‘ और ‘तहज़ीबुल इस्लाम‘ बल्कि ‘नखले इस्लाम‘ का मुसन्निफ बिस्तर मर्ज पर पडा हो। और दूसरी तरफ ‘तुर्के इस्लाम‘ और ‘तगलीबुल इस्लाम‘ बल्कि ‘तबरे इस्लाम‘ का मुसन्निफ उसके सिरहाने बैठा उसकी तीमारदारी कर रहा हो। वहां अगर मलकुस्समावात वलअरज़ दिली मुसर्रत से यह शअर पढ रहे हों किः
शुकरे ऐज़द कि मयाने मन व उ सुलह फताद
हूरयां रक्स कुनां सागरे शुक्राने जदन्द
तो कोई अजब की बात नहीं है। इससे पेशतर मेरा यह खयाल था कि मोलवी सनाउल्लाह जो अहमदिया फिरके के साथ मुसलमानों जैसे फजूल छेडछाड करता रहता है वह ज़रूर कोई ‘कठमुल्लाह‘ होगा। यही वजह थी कि बावजूद उनकी कोशिश करने के मैं कभी उनसे मिलना नहीं चाहता था लेकिन पहली ही मुलाकात में मुझे मालूम हुआ कि मोलवी सनाउल्लाह एक खुश मिजाज़, खुश मज़ाक़, खूबसूरत और खूबसीर जन्टलमेन है। और कुदरत ने उसको एक दिलरूबा अदा दी है सच तो यह है कि इस इब्न याकूब को देख कर मुझे अपने दिल को थामने में बडी दिक्कत पेश आयी। वह हर तीसरे रोज अमृतसर से मेरी खबर लेने के लिए लाहूर पहुंचते थे।‘‘
इस बीमारी से भी बहुत पहले का एक वाकआ बहुत देरीना सहबत याद दिलाने वाला है। वह भी मिस्टर धर्मपाल ही के अल्फाज में दरज है।
हुस्न अखलाक से एक बफा सियालकोट आर्य-समाज के जलसे में बज़रूरत बहस मेरा जाना हुआ तो बाद मुबाहिसा दूसरे रोज़ स्टेशन को जाते हुए दोनों जमाअतें(मुस्लिम और आर्य) मिल गयीं। उस मौके पर मैं सबके सामने मिस्टर धर्मपाल से बगलगीर हुआ और कुछ अल्फाज़ भी कहे जो उन्ही की इबारत में आते हैं। आह! उस बग़लगीरी का लुतफ उस्ता मोमिन खां मरहूम को हासिल होता तो वह कभी मन्दरजा जेल शेअर न लिखतेः
रख लेवेंगे पत्थर मगर उन संगदिलों को
तौबा है कि सीने से लगाया न करेंगे
इस वाकआ का जिक्र मिस्टर धर्मपाल यूं करते हैंः
‘‘नहीं मालूम इस्लाम में कौन-सा जादू है। और मुस्लिम कौम में कौनसी स्प्रिट काम कर रही है कि जिसको देखकर मैं बाज़ औक़ात हैरान व शशदर रह गया हूं और मुझे बेसाख्ता कहना पडा है कि इस्लाम में कोई न कोई ऐसा जादू ज़रूर है जो मेरी समझ से बालातर है। और कि यह एक ऐसी बला की कौम है कि जिसक़दर में इस क़ौम से दूर भागता हूं उसी कदर मेरे नज़दीक आने की कोशिश करती रही है यहां तक कि जि दिनों में इस्‍लाम और मुसलमानों के बरखिलाफ मेरा कलम निहायत ही खोफ़नाक आग बरसा रहा था, ऐन उसी गोलाबारी के दिनों में मेरे उस हरीफ़ ने जिसने मेरी आतिशबार कलम के मुकाबले पर सबसे ज्‍यादा आतिशबाज़ी की थी एक रोज मोका ताडकर मुझे सैकडों दयानंदियों के मजमे में लपक कर सीने से लगा लिया और हसरत भरे लहजे में कहा कि
''आखिर यह जुदाई कब तक'', 1903 से लेकर आजतक मुझे मुस्लिम कौम की स्प्रिट का दूसरी कौमों की स्प्रिट से मुकाबला करने का दो दफा मौका मिला है, और मैं दोनों दफा मुस्लिम स्प्रिट की बरतरी का क़ायल होने के लिए मजबूर हुआ हूं, मुझे पहला मौका तो उस वक्‍त मिला था जबकि मैं ने अपना सबसे पहला लेक्‍चर ''तर्के इस्‍लाम'' शाए किया था, ''तर्के इस्‍लाम'' शाए करने को मैं शाए तो कर चुका मगर चंद ही रो़ में मुझे मालूम होगया कि मैंने भिडों के छत्‍ते मे हाथ डाला है, चुनाचे छ ही माह में दो दरजन के करीब मुसलमानों ने इसके जवाबात शाए किए और इसके बाद कई सालों तक इसके जवाबात भी शाए होते रहे, कम से कम तीस रिसाले या किताबें तो मेरी नज़र से गुज़र चुकी हैं, जो कि मुसलमानों ने ''तर्के इस्‍लाम' के जवाब में लिखी थीं, और जिनके मुसन्निफ़ खुद ही अपनी तस्‍नीफ़ की एक-एक कापी मेरे पास भेजते रहे, अहले हदीस, शिया, सुन्‍नी, नेचरी, अहमदी , चकडालवी गर्ज़ कि हर एक फिर्के की तर से ''तर्के इस्‍लाम'' के जवाबात शाए हुए, चूंकि इन जवाबत में स्‍वामी दयानंद की तालीम पर भी इलज़ामी हमे होते थे इस लिए उन किताबों ने डबल गोलाबारी का काम दिया, एक तो ''तर्के इस्‍लाम'' पर और दूसरा ''आर्य समाज'' पर गोला बरसता था, मैं तो गुरूगुल कांगडी के जंगल में एक झोंपडी में बैठा हुआ चुप-चाप इस तमाशे को देख रहा था लेकिन मुसलमानों की इस गोलाबारी से आर्यसमाज में एक सिरे से दूसरे सिरे तक हलचल मच गयी, और आर्य समाज की किश्‍ती मंझदार में जा पडी, आर्यसमाज के कारकुनों ने इस बात को महसूस करना शुरू किया कि ''तर्के इस्‍लाम'' के शाए करवाने में गलती हुई है, आखिर कार जब उन्‍होंने देखा कि अहले इस्‍लाम की तरफ से आतिशबारी दिन बदिन तेज़ होती जाती है तो उन्‍होंने खयाल करके कि जिस शखस की बदौलत आर्य समाज पर यह आफत नाजि़ल हुई है उसी को आग में झोंक देना चाहिए, मुझे यह जानकर कि लोहे को लोहा काटता है अहले इस्‍लाम के मुक़ाबले पर खडा होने के लिए मजबूर किया, चुनांचे यह वो मौका था जबकि मैं ने मुसलमानों की आग के मुकाबले पर ''तहजीबुल इस्‍लाम'' वगैरा के जरिए आग बरसानी शुरू की, और छ साल तक मुतवातर आ बरसाता गया, गो में इस काम को करता था मगर मुझे बार-बार खयाल आता था कि में से-सिकंदर ही के साथ मकर कर रहा हूं, चुनांचे मुझे कामयाबी न हुई नतीजा यह हुआ कि मैं ने अपनी रफतार को गलत जानकर और अपनी ताकत को जाए होते देख कर अपनी तमाम किताबों को जला दिया और मैदान मुसलमानों के हाथ रहा'' (अल मुस्लिम 49-50 बाबत जुलाई 1914 ई.)

इस सारी दास्‍तान का मुखतर मतलब यह है कि मैं(मौलाना) ने मिस्‍टर धर्मपाल को अलेहदगी के दिनों में भी उसी मुहब्‍बत से देखा जिस मुहब्‍बत से कोई अपने दूर  उफतादा अजीज को देखा करता है, हमेशा में इसी कोशिश में रहा कि हमारा अजीज गुमराही से निकलकर हिदायत पर आजावे, चुनांचे बहम्‍दुलिल्‍लाह ऐसा ही हुआ
----साभार ''तुर्के इस्‍लाम''
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RELIGIOUS CONTROVERSIES IN THE PUNJAB:
THE ‘A POSTASY ’OF GHAZI MEHMUD DHARAMPAL

........From 1914 onwards Ghazi Mehmud Dharampal took out a number of journals and was actively involved against the Arya Samajis during the Shuddhi campaigns of 1920’s. But even though he became a Muslim, his understanding of the religion remained unconventional a she tilted toward the Ahl al-Qur’ an – .......

ALI USMAN QASMI  UNIVERSITY OF HEIDELBERG GERMANY
Page 5 to Page 18
http://www.scribd.com/doc/44946222/The-Historian-2009-1

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वेद और स्वामी दयानन्द
पहली फ़सल

प्रस्तावना

दोस्तो!
मैं आज जिस मज़मून पर आप के सामने बोलना चाहता हूँ वह ये है कि वेद ख़ुदा का कलाम नहीं है। मैं साफ़ अल्फ़ाज़ में बता देना चाहता हूँ कि एक अर्से तक मेरा ये दिली ऐतक़ाद रहा है कि वेद ख़ुदा का कलाम है। लेकिन अब मेरा ये ऐतक़ाद नहीं है पेशतर इस के कि मैं आप के सामने अपने इस ऐतक़ाद की तबदीली का ज़िक्र करूँ मैं इस बात का इक़रार कर लेना भी ज़रूरी समझता हूँ कि मैं इन मुतअस्सब इन्सानों में से नहीं हूँ जो किसी बात पर महज़ ज़िद से अड़े रहते हों बल्कि मैं हक़ व हक़ानियत का तालिब हूँ और मैं सदक़ दिल से इस उसूल का पाबन्द हूँ कि इन्सान को सच्चाई के क़बूल करने और झूठ के तर्क करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। अगर उन असहाब में से जो कि वेदों को अभी तक ख़ुदा का कलाम मान रहे हैं कोई शख़्स दलाईल व वाक़िआत की बिना पर इस बात को साबित कर दे और मुझे क़ायल कर दे कि वेदों को ख़ुदा का कलाम न मानना मेरी ग़लती है तो मैं फ़ौरन् अपनी ग़लती की इसलाह कर लूँगा मेरी ये पोज़िशन ऐसी माकूल है जो कि दुनिया में हर एक हक़ पसन्द इख़्तियार करता चला आया है। यूरोप के मौजूदा ज़माने के फ़लास्फ़रों के सरताज मिस्टर हरबर्ट स्पेन्सर का मकूला है कि मुहक्किक़ शख़्स को फ़तह पाने की निसबत सदाक़त को मदेनज़र रखना चाहिए और सदाक़त की जाँच के लिए लाज़मी है कि इन्सान इन तअस्सुबात या जज़्बात से आज़ाद हो जाये जो ज़मीन के ख़ास हिस्से, नस्ल या पैदाईश की बिना पर इन्सानों को क़ैद किये हुए है और उनको हमेशा यह बात मद्दे नज़र रखनी चाहिए कि दुनिया में कोई मज़हबी अक़ीदा या कोई मज़हबी किताब महज़ इसलिए सच्चे नहीं कहे जा सकते कि वह बहुत पुराने हैं न ही किसी मज़हब या किताब को इसके होने नए की वजह से झूठा कहा जा सकता है। इसके बरअक्स बअज़ औक़ात ये देखने में आता है कि ये हमारी ज़िन्दगी के रास्ते में जहाँ पुरानी किताबें बतौर मिट्टी के चिराग़ों के रहनुमाई का काम करती है। इस के मुकाबले में बअज़ ज़माने की किताबें बतौर बिजली की रोशनी के हमारी ज़िन्दगी के रास्ते को रोशन करतीं और हमको राहत बख़्शती हैं। मगर मिट्टी के चिराग़ को महज़ इसलिये हाथ में पकड़े रखना कि ये हमारे बाप दादा हमारी नस्ल या हमारे मुल्क का क़दीमी चिराग़ है और इसके मुक़ाबले में बिजली के लैम्प से फ़ायदा उठाने से इन्कार कर देना मुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुब है जिससे आज़ाद होने के लिये मिस्टर हरबर्ट स्पैन्सर ने हर एक मुहक़्क़क़ को नसीहत की है, मैं मुल्की तअस्सुब का क़ायल नहीं हूँ मैं नस्ली या पैदाईशी तअस्सुब का भी गुलाम नहीं हूँ। अगरचे उन लोगो की तरफ़ से जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं मेरे वेदों के कलामे इलाही होने से इनकार करने पर मुझ पर पैदाइशी तअस्सुब का इलज़ाम लगाया गया और लगाया जा रहा है लेकिन वह इस बात को एक मिनट के लिए भी सोचने के वास्ते तैयार नहीं होते कि अगर मैं इस क़िस्म के तअस्सुबात का शिकार होता तो मैं दीगर मज़ाहिब के बरखि़लाफ़ एक लफ़्ज़ भी न लिख सकता। लेकिन मेरे इस क़िस्म के दोस्त जबकि मैं दीगर मज़ाहिब के बरखि़लाफ़ धुवाँदार तहरीरें निकाल रहा था। मेरी तारीफ़ में ज़मीन व आसमान के कलाबे मिलाते और मुझे हक़ व हक़ानियत की ज़िन्दा मिसाल बताते थे अगर मैं उस वक्त हक़ व हक़ानियत का तालिब था तो अब मैं झूठ और बातिल परस्ती का तालिब नहीं कहा जा सकता। मुहक्क़क़ इन्सान नशो नुमा पाने वाले बच्चे की मानिन्द होते हैं जिस तरह बच्चे के वह कपड़े जो कि वह पाँच साल की उम्र में पहनता था पन्द्रह साल की उम्र में इसके लिए छोटे हो जाते हैं इसी तरह मुहक़्क़क़ इन्सानों के पहले ख़्यालात ताज़ा वाक़िआत, तजुर्बात और मुशाहेदात की बिना पर ज़्यादा से ज़्यादा वुसअ़त पज़ीर हो जाते हैं अगर आप का कोई रिश्तेदार या अज़ीज़ आप के पास बचपन का कोई फटा पुराना कुर्ता या पाजामा जो दो तीन बालिश्त से ज़्यादा लम्बा नहीं होगा, लाकर आप से कहे कि तुम कैसे नादान हो जो इस पहले कुर्ते और पाजामे को छोड़कर आज इतने लम्बे लम्बे कुर्ते और पाजामे पहन रहे हो। तुम इन नये कुर्तों और पाजामों को उतार कर वही पुराना कुर्ता और पाजामा पहनो जो कि तुम को तुम्हारे वालिदेन ने दो तीन साल की उम्र में पहनाया था आप इस रिश्तेदार या अज़ीज़ की इस बात पर हंस देंगे। तअज्जुब नहीं कि आप इसको बेवकूफ़ भी कहें। क्योंकि बचपन का दो बालिश्त लम्बा पाजामा अब तुम्हारे नंग को ढांपने के लिये काफ़ी नहीं हो सकता। जबकि आपको गज़ भर लम्बे पाजामे या कई गज़ लम्बे तेहबंद या धोती की ज़रूरत है। आप अपने अज़ीज़ों को ग़ालिबन् यही जवाब देंगे कि अगर आप पसन्द करते हैं कि मैं पुराने कुर्ते को ज़रूर पहनूं तो बराये ख़ुदा इसको इतना कुशादा कर दो या मुझे इजाज़त दो कि मैं इसको इतना कुशादा कर लूँ कि ये मेरे बदन पर फ़िट आ जाये। लेकिन अगर वह अज़ीज़ और आशना उन दोनों बातों में से एक को भी मानने के लिए तैयार नहीं होते तो आपका फ़र्ज़ होना चाहिए कि आप इसको दूर फेंक दें और इसको पहनने से क़तई इन्कार कर दें। आप इसको फेंक देने की बिना पर मुलज़िम या बेवकूफ़ नहीं गरदाने जा सकते। बल्कि मुलज़िम या बेवकूफ़ वह शख़्स है जो आप से इसरार करता है कि आप इसी पुराने कुर्ते को पहनें। जब दो बालिश्त कपड़े की बाबत इन्सानों का यह हाल है तो ये किस क़दर ज़ुल्म और अंधेरे की बात है कि किसी मुहक़्क़क़ इन्सान के ख़्यालात की वुसअ़त को देखकर उस पर ये फ़तवा पास किया जाये कि चूंकि इसने पहले ख़्यालात को तर्क कर दिया है इसलिये वह गुमराह या नादाँ है और इसकी गुमराही या नादानी को दलाईल से साबित न किया जाये। वह लोग जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं वह मेरे ख़्यालात की वुसअ़त या आज़ादी पर बईना इसी क़िस्म का फ़तवा पास कर रहे हैं।

वह कहते हैं कि आज से नौ साल पेशतर तुम ने वेदों को ख़ुदा का कलाम तसलीम किया था। तुम कैसे गुमराह हो जो आज तुम इस पुराने कुर्ते को जो ख़ुदावंदे कुद्दूस ने इन्सान के बचपन के अव्वलीन हिस्से में तैयार किया था पहनने से इनकार करते हो। मगर मैं कहता हूँ कि मैं अब बुलन्द क़द हो गया हूँ। अब ये इन्सानी बचपन का कुर्ता मेरे नंग को ढांप नहीं सकता बल्कि जिस तरह किसी ज़माने में ये कुर्ता मेरे दिल और दिमाग़ के लिये राहत बख़्श था क्योंकि ये इस वक़्त मेरे ऐन फ़िट आता था। इसी तरह अब ये फ़िट न होने के बाइस मेरे दिल और दिमाग़ के लिए तकलीफ़ देह हो रहा है। इसलिये कि ये बहुत तंग है और मैं ज़्यादा नशोनुमा पा गया हूँ। जब मैं ये जवाब देता हूँ तो मुझे ताना दिया जाता है कि हमारे तुम्हारे ऋषि मुनी इस कुर्ते को पहनते और इसको ख़ुदा का कलाम मानते चले आये हैं लेकिन तुम क्या उनसे बढ़कर हो जो ऐसी बातें बनाते हो। मुझे ताना माकूल मालूम नहीं होता जबकि तारीख़ शहादत देती है कि पुराने ऋषि मुनी जंगलों में रहने के बाइस या तो अपने नंग को ढांपने की चन्दाँ ज़रूरत नहीं समझा करते थे या दो बालिश्त भर लंगोटी या भोजपत्र से ही आगा पीछा ढांककर गुज़ारा कर लेते थे। लेकिन मुझे कोई मअ़कूलियत नहीं है कि चूँकि पुराने ऋषि मुनी ऐसा करते थे इसलिये मैं भी आज बालिश्त भर लंगोटी या भोजपत्र को आगे पीछे टांगकर घूमता फिरूँ। अगर ऋषि मुनी वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते थे तो मुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात की बिना पर ऐसा मानने की लिये मजबूर थे। जबकि वह हक़ व हक्क़ानियत की तलाशी के लिये इस आला मैयार से आरी थे जो कि मिस्टर हरबर्ट स्पैन्सर के अल्फ़ाज़ में दिखाया जा चुका है। आज के बरअक्स जो मुहकिक़क़ मुल्की, नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद थे। उन्होंने वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने से इन्कार कर दिया। बौद्ध और चारदाक के मुहकिक़क़ वुस्ता ज़माने की ज़िन्दा शहादत हैं। और ब्रह्म समाज वेदों की कलामे इलाही न होने के बारे में ज़माना-ए-हाल का एक ज़िन्दा और ज़बरदस्त प्रोस्टेंट हमारी आँखों के सामने मौजूद है। वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की तरफ़ से बुद्धों, जैनियों और चारदाक के मुहकिक़क़ों पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वह दाम मार्गी थे हालांकि ये इल्ज़ाम कोई बुनियाद नहीं रखता। लेकिन अगर एक मिनट के लिये इस इल्ज़ाम की सदाक़त को तसलीम भी कर लिया जाये तो ब्रह्मों समाज के मुहक़्क़क़ीन को इसी इल्ज़ाम से रद्द करने की कोशिश करना यक़ीनन् अपने आप को क़ानून की ज़बरदस्त ज़ंजीरों से जकड़ना है जबकि अम्रे वाक़िअ़ ये हो कि ब्रहमो समाज के इस क़िस्म के तमाम मुहक़्क़क़ उन उयूब से पाक थे जो कि दाम मार्गियों की तरफ़ मनसूब किये गये हैं और वह आला दर्जे की मज़हबी, अख़्लाक़ी और मजलिसी ज़िन्दगी का नमूना थे। मेरे इस बयान से ये नतीजा नहीं निकालना चाहिए कि मैं बौद्ध, जैनी चारदाक या ब्रहमो समाजी हूँ। मेरा इन सोसायटियों से कोई भी तअल्लुक़ नहीं है। बल्कि मेरा मतलब इस बात पर रोशनी डालने से है कि जिन लोगों ने मुल्की, नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद होकर वेदों का मुताला किया है उन्होंने उनको ख़ुदा का कलाम तस्लीम करने से इन्कार कर दिया है। मगर वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की तरफ़ से फिर आवाज़ आती है कि जिन लोगों को तुम मुहकिक़क़ कहते हो वह दर-हक़ीक़त मुहकिक़क़ नहीं थे और कि उन्होने वेदों से लाइल्मी की वजह से मुँह फेर लिया। अगर तुम वेदों के बारे में सही सही रोशनी हासिल करना चाहते हो तो तुम को इस शख़्स की बात पर ऐतबार करना चाहिये जो कि वेदों का मुहकिक़क़ और स्कॉलर हो। अगरचे मैं इस बात को तस्लीम करने के लिए तैयार नहीं हूँ कि बौद्ध, चारदाक, जैन और ब्रहमो मुहकिक़ों को मुहकिक़ीन के ज़मरे से ख़ारिज कर दिया जाये। लेकिन हक़ व हक्क़ानियत का पता लगाने के लिये मुझे एक मिनट के लिये ये मान लेना चाहिये कि वह वेदों के मुहकिक़क़ नहीं थे। अब सवाल ये पैदा होता है कि तुम वेदों का मुहकिक़क़ या स्कॉलर किसको कहते हो, मेरे कान में आवाज़ आती है कि वेदों का सबसे बड़ा स्कॉलर और मुहकिक़क़ स्वामी दयानन्द था। अब मुझे इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि स्वामी दयानन्द जैसा वेदों का स्कॉलर और मुहकिक़क़ वेदों के बारे में हमें क्या ख़बर लाकर देता है।

जब मैं स्वामी दयानन्द की तहक़ीक़ात पर गहरी नज़र डालता हूँ तो मैं इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि दरअसल स्वामी दयानन्द वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने में ‘‘दयानतदार’’ नहीं था। मेरे ये अल्फ़ाज़ चौंका देने वाले मालूम होंगे। लेकिन मैं स्वामी दयानन्द की ही तहरीर से इस बात को साबित करूँगा। पेशतर इसके कि मैं इस मज़मून को शुरू करूँ ज़रूरी मालूम होता है कि मैं यहाँ पर स्वामी दयानन्द के पुराने दोस्त और हिन्दुस्तान के बही ख़्वाह और इंडियन नेशनल काँग्रेस के बानी मबानी मिस्टर ह्यूम आंजहाँनी की इस तहरीर का थोड़ा सा इक़तबास यहाँ दे दूँ कि जो कि मार्च 1893 ई0 के थ्योसोफ़ेस्ट में शाये हुई थी। मिस्टर ह्यूम आंजहाँनी लिखते हैं -
‘‘हम सब को स्वामी दयानन्द की इज़्ज़त और तारीफ़ करनी चाहिए क्योंकि वह एक बड़ा पुरूष और बुलन्द ख़्याल था। लेकिन हक़ व हक़्क़ानियत के इन तमाम आशिकों को जिन्होंने कि अपने आप को पुरोहितों की गुलामी से आज़ाद कर लिया है ये सुनकर सख़्त दुख होगा कि स्वामी दयानन्द ने एक ऐसी सोसायटी क़ायम की है जो कि वेदों के नौशतों को मुनज़्ज़ा मिनलख़ता मानती है। इन तमाम ग़लत अक़ाईद मे से जिन्होंने कि बदक़िस्मत इन्सानी दुनिया में लानत की बारिश की है कोई अक़ीदा ऐसे ख़तरनाक नताईज का पैदा करने वाला साबित नहीं हुआ जिस क़दर कि मज़हबी किताबों को मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने का निहायत ही क़ाबिले नफ़रत और पुर फ़रेब अक़ीदा साबित हुआ है। यही वजह है कि सच्चाई के तमाम आशिक़ों को इस अक़ीदे की बड़ी शद्दोमद से मुख़ालफ़त करनी चाहिए। ये अक़ीदा एक ऐसी शरारत की ज़मीन है कि जिसमें से पुराहितों की वह ख़ौफ़नाक और ज़हरीली जमाअत पैदा होती रही है जिसने कि इन्सानी तारीख़ के हर एक वर्क़ को तबाही तनज़्ज़ुल मुसीबत आग और ख़ून से रंग छोड़ा है इसलिये इस ख़तरनाक अक़ीदे को रखता हुआ ख़्वाह स्वामी दयानन्द उससे दस गुना आलिम और नेक दिल भी होता जितना कि दरहक़ीक़त है ख़्वाह उसके इरादे उससे सौ गुनाह नेक, आला और बेग़र्ज़ा न होते जितने कि वह हैं फिर भी ये हर एक ऐसे शख़्स को ख़्वाह वह कितना ही अदना और कम इल्म हो मगर जिसने तारीख़ की शहादत से इस निहायत ही ख़ौफ़नाक अक़ीदे के सख़्त ख़तरनाक नताईज से आगाही हासिल कर ली हो। फ़र्ज़ होना चाहिए कि वह कम से कम इस पहलू में स्वामी दयानन्द की बहादुराना मुख़ालफ़त करे जबकि वह इस अक़ीदे को बतौर एक सनद के हम पर ठूँसने की कोशिश करता है और इसको साफ़ अल्फ़ाज़ में बताया जाये कि अगरचे वह दीगर मामलात में एक देवता कहा जा सकता है मगर इस अक़ीदे में उसकी पोज़िशन एक ऐसे ग़द्दार की पोज़िशन है जो कि इन्सानी बेहबूदी और सदाक़त के हक़ में ख़तरनाक ग़द्दारी कर रहा हो।’’
ये अल्फ़ाज़ सख़्त है लेकिन वह कौन से सख़्त अल्फ़ाज़ हो सकते हैं जिनके ज़रिये कि इस अक़ीदे को जो कि बनी नूए इन्सानी की गुज़िश्ता तवारीख़ में तमाम लानतों से बड़ी लानत साबित हुआ हो। गर्दन ज़ोनी क़रार देने के लिये इस्तेमाल किये जा सकते हैं? ये बात कि स्वामी दयानन्द ने वेदों की मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता साबित करने की कोशिश दयानतदारी से की है। इसकी पोज़िशन को बदल नहीं सकती इससे इसकी अख़्लाक़ी ज़िम्मेदारी का बोझ हल्का हो सकता है। लेकिन इसकी मुख़ालफ़त करने और इसके फ़अ़ल की असलियत को ज़ाहिर करने का हमारा जो फ़र्ज़ है हम इससे सुबकदोश नहीं हो सकते। अगर बदक़िस्मती से कोई स्वामी ये समझ ले कि दुनिया की तमाम बीमारियों की दवा ये है कि जितने दरियाओं और नदी नालों तक इसका हाथ पहुँच सके, उसमें वह मुहलिक ज़हर घोल दे और अपनी हिमाक़त से ये समझ बैठे कि इस पानी के इस्तेमाल से तमाम इन्सान बीमारी से शिफ़ा पा जायेंगे। हालाँकि तारीख़ शहादत देती हो कि वह ज़हर बनी नूऐ इन्सान के लिये निहायत ही मुहलिक साबित हो चुका है। इस सूरत में इस स्वामी के ऐसे ख़तरनाक फ़अ़ल पर जितने भी सख़्त से सख़्त अल्फ़ाज़ में झाड़ा जाये और लोगों को इसका शिकार बनने से आगाह किया जाये उतना ही कम होगा। ऐसी सूरत में अगर एक शख़्स जो ख़्वाह कितना ही हक़ीर और बे बज़ाअ़त हो ये समझ कर कि इतने बड़े आलिम और नेक दिल शख़्स ने ये कैसी ख़तरनाक हरकत की है अपने हमजिन्सों को इस ज़ेहर के प्याले से दूर रखने के लिये आगाह करने का काम करे तो इस पर कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि दुनिया में आलमे जमादात, आलमे नबातात और आलमे हैवानात का कि तमाम ज़ेहरों से बढ़कर बनी नूऐ इन्सान को हलाक किया है। दुनिया में जिस क़दर ख़ौफ़नाक जंग हुए जिस क़दर अज़ाब बरपा किये गये जिस क़दर मज़हब के नाम पर क़त्ल व ख़ून हुए, उनमें से निस्फ़ से ज़्यादा इस ग़लत अक़ीदे की बिना पर बरपा हुए और इस तमाम कुश्तो ख़ून ने ज़मीन के बहिश्ती चेहरे को जहन्नम में तबदील कर दिया इसलिये अगरचे मैं इस अंगूरिस्तान का एक मामूली मज़दूर हूँ और अगरचे मैं स्वामी दयानन्द की जूती का तसमा खोलने के भी लायक़ ख़्याल न किया जाऊँगा। मगर मैं इस ज़ेहरीले और खौफ़नाक अक़ीदे के बरखि़लाफ़ जो कि स्वामी दयानन्द ने बतौरे बुनियादी उसूल के अपनी सोसायटी में दाखि़ल किया है अपनी कमज़ोर आवाज़ उठाने से नहीं रह सकता। आओ! ज़रा वाज़ेह तौर से हम इस बात पर विचार करें कि वेदों को मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने का क्या मतलब है। वेदों को मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने का ये मतलब है कि इस पुरोहित को भी जो कि इनकी चाबी अपने हाथ में रखता है और जिसके क़ौल की आम आदमी पैरवी करते हैं। मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता तसलीम किया जाये। चुनांचे गुज़िश्ता तारीख़ इसकी शाहिद है और मौजूदा ज़माने में भी इसकी मिसालें मिलती हैं कि कोई मुकद्दस किताब ख़्वाह कितने ही साफ़ अल्फ़ाज़ में क्यों न लिखी हुई हो। इसमें कुछ न कुछ ऐसे फ़िक़रात ज़रूर मिलेंगे जिनके कि दो तरह पर मअ़नी किये जा सकते हों। इस तरह पुरोहित को मौक़ा मिल जाता है कि वह इस बात का फ़ैसला करे कि दोनों में से किन मअ़नों को ठीक तस्लीम किया जाये। लेकिन अम्रे वाक़िआ ये है कि कुतुबे मुकद्दसा का ज़्यादा हिस्सा ऐसा होता है जो वाज़ेह नहीं होता। उनमें से बहुत-सी किताबों की ज़बान पेशतर इसके कि उनको मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता तस्लीम किया जाये, मर चुकती हैं यानी व न बोली जाती है, न समझी जाती है और बार बार के उलट फेर से उनमें अक्सर पाठ, भेद और मिलावट आ जाती है। और उनमें मुतज़ाद बयानात पाये जाते हैं। इस तरह ये शक पैदा हो जाता है कि कौनसा हिस्सा असली और कौन सा माबाद की मिलावट है। अगर ये भी तसलीम कर लिया जाये कि किसी बहुत दूर के ज़माना साबक़ा में किसी किताब को कोई ख़ास पुरोहित या पुराहितों की जमाअ़त या कोई सोसायटी या चर्च मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानती थी तो ये नतीजा नहीं निकल सकता कि माबाद के लोग भी इसको वैसा ही मानें। इसलिये जो आदमी इन तमाम हालात वाक़िआत पर ग़ौर करते हैं वह इस बात को तसलीम करने के बगै़र नहीं रह सकते कि किसी मुकद्दस किताब को मुनण्ज़ा मिनल ख़ता मानने का ये मतलब है कि पुरोहित क्लास को लोगो की रूह पर जुल्म व जब्र से इक़तदार हासिल रहे और जो लोग तारीख़ से वाक़िफ़ हैं वह बख़ूबी जानते हैं कि अगरचे पुरोहित क्लास में बड़े बड़े आलिम मुत्तक़ी, परहेज़गार, साधू संत भी होते रहे हैं लेकिन बनी नूऐ इन्सान पर तबाही इस गिरोह ने बरपा की है। इसका निस्फ़ भी बड़ी से बड़ी वबा और दीगर हलाकतों से नहीं आयी अगर ये भी तसलीम कर लिया जाये कि कोई किताब शुरू में मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानी जाती थी तो मौजूदा ज़माने में इसके मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता होने का वअ़ज़ करना महज़ शरारत है। अव्वल तो इसलिये कि तजुर्बे ने ऐसे ग़लत अक़ीदे के प्रचार के ख़तरनाक नताईज को दुनिया पर ज़ाहिर कर दिया है। दूसरे कोई भी दयानतदार आलिम शख़्स इस बात को तसलीम नहीं कर सकता कि दो हज़ार साल पहले किसी किताब का असली मज़मून क्या था या इस मज़मून का असली मफ़हूम क्या था। इसलिये अगर स्वामी दयानन्द ये वअ़ज़ कर रहा है कि वेदों का मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता है तो इसका मक़सद ख़्वाह कैसा ही आला हो लेकिन फिर भी यही कहा जायेगा कि वह एक शरारत फैला रहा है और वह अज़सरे नौ बनी नूऐ इन्सान के हाथ पाँव में वह ज़ंग ख़ुर्दा पर नई हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ डाल रहा है जिनके ज़रिये से पुरोहित क्लास ने बनी नूऐ इन्सान को एक मुद्दत से जकड़ रखा था और जो बेड़ियाँ कि अब ढीली होती चली जा रही है।

मैंने जहाँ तक वेद के मंतरों और उनके तराजिम को जो कि यूरोपियन आलिमों और हिन्दुस्तानी पंडितों ने किये हैं, पढ़ा है। मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि उनमें अक्सर मक़ामात पर खींच तान से काम लिया गया है। लेकिन अगर मैं इस बात को तसलीम कर लूँ कि स्वामी दयानन्द वेदों का जो तर्जुमा कर रहा है वह मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता है तो इसका ये मतलब होगा कि वह ख़ुदा के साथ जो उसके नज़दीक वेदों के इलहाम का मिम्बअ़ है, बराबरी का दावा करता है या वह इस मिम्बअ़ से ताज़ा इलहाम पाने का जिसके ज़रिये कि वह मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता तर्जुमा कर रहा है। मुद्दई है मैं बिल्कुल निडर होकर इसको चैलेंज देता हूँ कि वह या तो वेदों के मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता होने के बड़े अक़ीदे को ठीक साबित करे या वह इस बात का सबूत दे कि वह ख़ुद भी मुलहिम है।
मैं इस बात को वाज़ेह कर देना चाहता हूँ कि मुझे स्वामी दयानन्द की इलमियत पर कोई ऐतराज़  नहीं है। मुम्किन है वह इस ज़माने में वेदों का सबसे बड़ा आलिम हो या ना हो लेकिन अगर वह ख़ुद मुलहिम नहीं है तो इसको वेदों का भाष्य महज़ उसकी अपनी ज़ाती राय हो सकती है जो कि मुम्किन है दुरूस्त हो और मुम्किन है ग़लत हो। लाज़मी तो यही है कि इसमे दीगर इन्सान मुसन्निफ़ों की तरह बहुत सी ग़लतियाँ हों और किसी इन्सान की राय पर यूँ ही मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता होने की मुहर लगा देना, मेरे नज़दीक महज़ कुफ्ऱ है। लेकिन अगर स्वामी दयानन्द ताज़ा इलहाम का मुद्दई है तो उसके पास इस दावे का क्या सबूत है। उसने कौनसा अज़ीमुश्शान काम करके दिखाया है। उसने इस बात की क्या शहादत पेश की है कि वह जो कुछ बोल रहा है वह खुदा की ख़ालिस आवाज़ है और कि उसमें किसी दूसरी आसमानी या ज़मीनी आवाज़ की मिलावट नहीं है। इस जैसे बहुत से आलिम और नेक इन्सान भी मौजूद हैं जो कि इस के भाषीय के बहुत से हिस्से को महज़ ग़लत क़रार देते हैं। इसके पास क्या वजह है कि हम इन आलिमों के ख़्यालात पर इसको तरजीह दें।
(थ्योसोफ़स्ट मार्च 1893 ई0)
मिस्टर ह्यूम आंजहाँनी ने अपने मज़मून में ख़ुद इस बात का इक़बाल किया है कि उन्होंने स्वामी दयानन्द के लिये सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये हैं मुझे ज़रूरत नहीं है कि मैं उनकी तरफ़ से अल्फ़ाज़ की सख़्ती के लिये मअ़ज़र्रत करूँ जबकि वह ख़ुद इस बात को तसलीम कर रहे हैं कि उन्होंने सख़्त कलामी की है। लेकिन मेरे नज़दीक महज़ सख़्त कलामी कोई दलील नहीं है। बल्कि दावे की कमज़ोरी की अलामत है तावक़्ते कि दावे के सबूत में अल्फ़ाज़ से बढ़कर सख़्त वाक़िआत और संगीन दलाईल पेश न किये जायें। मुझे इस बात को अफ़सोस के साथ तसलीम करना पड़ता है कि मिस्टर ह्यूम ने स्वामी दयानन्द की पोज़िशन को कमज़ोर साबित करने के लिये सख़्त वाक़िअ़ात और संगीन दलाईल से इस क़द्र काम नहीं लिया जिस क़द्र कि उन्होंने सख़्त अल्फ़ाज़ से काम लिया है वह इस बात को तो सख़्ती से महसूस करते हैं कि किसी किताब को इलहामी मानना पुरोहितों के हाथ में रूहानी आज़ादी को फ़रोख़्त कर देना है जो कि इलहाम की आड़ में मज़हबी मज़ालिम करते हैं लेकिन मिस्टर ह्यूम की ये दलील चन्दाँ ज़बरदस्त नहीं है। क्योंकि अगर पुरोहित इलहामी किताब की आड़ में बशर्ते कि वह दर हक़ीक़त जोर व जुल्म का मजमुआ हो मज़हबी मज़ालिम कर सकते हैं तो इसी तरह वह इलहामी किताब के ज़रिये बशर्तेकि वह ख़ैर व बरकत का मजमूआ हो मज़हबी दुनिया में अमन व अमान की भी बारिश कर सकते हैं पस किसी इलहामी किताब के बरखि़लाफ़ जिहाद शुरू करने से पेशतर इस बात का जानना ज़रूरी है कि वह इलहामी किताब जोर व  जुल्म  का मजमूआ है या नहीं। अगर ऐसा हो तो उसके बरखि़लाफ़ सख़्त से सख़्त अल्फ़ाज़ में जंग करना चाहिये। लेकिन अगर इस में इस क़िस्म के एहकाम नहीं हैं बल्कि वह ख़ैरो बरकत की तालीम देती है। तो हमें महज़ इस लिये इसके बरखि़लाफ़ जिहाद  नहीं  करना चाहिये कि इसको इलहामी तसलीम किया गया है। मेरे नज़दीक इलहाम ऐसी ख़तरनाक चीज़ नहीं है जैसा कि मिस्टर ह्यूम ने इसको फ़र्ज़ किया है। पस मैं मिस्टर ह्यूम की स्प्रिट में किसी मुक़द्दस किताब की महज़ इस बिना पर मुख़ालफ़त करने के लिये तैयार नहीं हूँ कि वह किताब इलहामी तसलीम की गयी है या मैं किसी शख़्स को महज़ इसलिये क़ाबिले मलामत या गद्दार क़रार नहीं दूँगा कि वह किसी किताब के इलहामी होने की तालीम देता है। बल्कि अपना फ़तवा देने से पेशतर मैं इस बात को देखने की कोशिश करूँगा कि इस किताब की तालीम क्या है और कि इस शख़्स पर पुरोहित का इस किताब की तालीम के बारे में क्या बयान है पस मैं महज़ इस बिना पर कि ज़माना गुज़िश्ता में चूँकि पुरोहित क्लास ने इलहामी कुतुब की आड़ में लोगों पर जुल्म किये गये हैं। इसलिये हर एक पुरोहित क़ाबिले मलामत है। मैं किसी मज़हब के पुरोहित के बरखि़लाफ़ फ़तवे देने को गुनाह समझता हूँ तावक़्ते कि पहले इस पुरोहित के अपने बयान को न सुन लिया जाये। आम अदालतों में भी यही दस्तूर देखने में आता है कि मुलज़िम पर फ़र्द जुर्म लगाने से पेशतर इसके बयान को सुन लिया जाता है। या कम से कम सज़ा देने से पहले इसको डिफे़न्स का मौक़ा दिया जाता है पस लाज़मी है कि पहले हम इस बात की पड़ताल करें कि जिन वेदों को स्वामी दयानन्द ने इलहामी माना है उनके बारे में स्वामी दयानन्द का अपना बयान किया है अगर स्वामी दयानन्द के अपने वेद भाष्य के ज़रिये वेदों में से कोई ऐसी बात साबित होती हो जो कि पुरोहितों के हाथ में जाकर दुनिया में कुश्त व ख़ून का बाइस होने का एहतमाल रखती हो तो बक़ौल मिस्टर ह्यूम स्वामी दयानन्द के वेद के हक़ में जिस क़दर सख़्त से सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये जायें वह कम हैं। लेकिन अगर स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से वेद बिल्कुल ख़ैर व बरकत का मजमूआ साबित होते हों तो हर एक शख़्स को स्वामी दयानन्द के नाम पर नारा-ए-आफ़रीं बुलन्द करना चाहिये। मेरे ख़्याल में ये एक ऐसी मुनसिफ़ाना पोज़िशन है जो कि हर एक मुहकिक या सदाक़त पसन्द को मद्दे नज़र रखनी चाहिये ताकि वह सदाक़त की तलाश में राहे रास्त से न भटकने पाये मुझे उम्मीद है कि वह असहाब जो वेदों को इलहामी मानते हैं और वह असहाब जो वेदों को इलहामी नहीं मानते। वह जो वेदों को इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं और वह जो वेदों को इज़्ज़त की निगाह से नहीं देखते मेरे मज़कूरा बाला पोज़िशन को बिल्कुल मुनसिफ़ाना क़रार देंगे।

दूसरी फ़सल
स्वामी दयानन्द के क़दमों में

मैं कह चुका हूँ कि किसी मज़हब या किसी शख़्स पर नुकताचीनी करने से पेशतर इस बात का जानना निहायत ज़रूरी है कि उस मज़हब या उस शख़्स के कौन से मसलमात हैं जिनको वह अपने नज़दीक आला से आला मसलमात क़रार देता है। वह कौन सी किताब को अपने नज़दीक बेहतरीन किताब समझता है किसी मज़हब या किसी शख़्स को फ़तह पाने की ग़र्ज़ से गिराने की कोशिश करना हक़ व बातिल की तमीज़ में मददगार नहीं हो सकता। किसी मज़हब या मज़हबी किताब पर नुकताचीनी करते वक़्त उन ज़मीन दोज़ रास्तों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिये जो कि उस मज़हब या मज़हबी किताब के मदाह के नज़दीक मतरूक ख़्याल किये जाते हैं। निहायत ज़रूरी अम्र तो ये है कि पहले फ़रीक़ सानी के बयान को मुकम्मल ग़ौर और सब्र से सुना जाये कि वह क्या कहता है। अगर इस का बयान दरहक़ीक़त माकूल है तो उसको इसलिये नामाकूल साबित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये कि उसको गिराना मक़सूद है। इस उसूल को मद्देनज़र रखते हुए इस बात की तहक़ीक़ात करनी चाहिये कि आया स्वामी दयानन्द वेदों को इलहामी या मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने की वजह से मिस्टर ह्यूम के अल्फ़ाज़ में वाक़ई ग़द्दार था या नहीं और आया वेद दरहक़ीक़त ख़ुदा का कलाम हो सकते है या नहीं? लाज़मी है कि सबसे पहले स्वामी दयानन्द के बयान को निहायत ग़ौर से सुन लिया जाये।
मिस्टर ह्यूम ने स्वामी दयानन्द को जिस सोसायटी का बानी क़रार दिया है वह सोसायटी इस बात को तस्लीम करती है कि सत्यार्थ प्रकाश स्वामी दयानन्द की किताब है अगर कोई ये कहे कि ये किताब स्वामी दयानन्द की नहीं है तो वह सोसायटी इस बात को हरगिज़ तसलीम नहीं करेगी। इसलिये अगर स्वामी जी के मसलमात या ख़्यालात का सही सही पता लगाना हो तो उसको इस किताब को पढ़ना चाहिये जो कि स्वामी दयानन्द की मुसतनद तसनीफ़ ख़्याल की जाती है। सत्यार्थ प्रकाश के बारहवें समुल्लास में स्वामी दयानन्द ने चारदाक के सत का खंडन करते हुए उनकी किताब में से एक जगह चन्द श्लोक दर्ज किये हैं जिनका तर्जुमा सत्यार्थ प्रकाश में मुफ़स्सला ज़ैल है।
‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर यानी राक्षस ये तीन हैं। जिरफरी, तिरफरी वग़ैरह पंडितों के मकर की बातें हैं। देखो धूर्तों की काररवाई कि घोड़े के लिंग को औरत पकड़े, यजमान की औरत का इसके साथ हम सोहबत कराना और लड़की से ठट्ठा करना वगै़रह लिखा है। वह धूर्तों के सिवाये और किसी का काम नहीं हो सकता और जहाँ गोश्त खाना लिखा है वह वेद का हिस्सा राक्षस का बनाया हुआ है।’’ (सत्यार्थ प्रकाश पेज न. 278 समूलास 12)
वेदों के बारे मे मज़कूरा बाला राय चारवाक मज़हब वालों की है। अगर इस राय को सही तसलीम कर लिया जाये तो वेद क़ाबिले तर्क हो जाते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द इस राय को ग़लत क़रार देता है। इसलिये चारवाक वालों की राय स्वामी दयानन्द आर्य समाज के लिये कोई हुज्जत नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द ने इसका ये जवाब दिया है।
‘‘अब कहिये अगर चारवाक वग़ैरह ने वेद वग़ैरह सच्चे शास्त्र देखे सुने या पढ़े होते तो कभी इस तरह वेदों की मज़म्मत न करते कि वेद भाँड, धूर्त और निशाचर जैसे आदमियों के बनाये हुए हैं। वह ऐसी बात हरगिज़ न निकालते। अलबत्ता महीधर वगै़रह, टीकाकार (मुफ़स्सिरीन) भाँड, धूर्त और निशाचर थे ये उनकी मक्कारी है वेदों का क़सूर नहीं है लेकिन चारवाक, अभानक बोध और जैनियों पर अफ़सोस है कि उन्होंने चार वेदों की असली संहिताओं को न सुना, न देखा और न किसी आलिम से पढ़ा। इसी वजह से उनकी अक़्ल मारी गयी और वह बे सरो पा वेदों की मज़म्मत करने लगे। बदकिरदार वाम मार्गियों के बेसबूत मनगढ़त और वाहियात शरहों को देख कर वेदों के मुख़ालिफ़ बन गये और बे इल्मी के अथाह समन्दर में जा गिरे। जाये गौ़र है कि औरत से घोड़े का लिंग पकड़वाकर इससे सोहबत करवाना और जजमान की कन्या से हंसी ठट्ठा वगै़रह करना वाम मार्गियों के सिवाये और किसी आदमी का काम नहीं वाहियात मनशा वेदों के खि़लाफ़ और ग़लत शरह उन महापापी वाम मार्गियों के सिवाये और कौन करता। बड़ा अफ़सोस तो इन चारवाक वगै़रह पर आता है कि वह बिला सोचे समझे वेदों की मज़म्मत करने पर मुस्तैद हो गये ज़रा तो अपनी अक़्ल से काम लेते मगर बेचारे करते क्या उनमें इतना इल्म ही नहीं था कि हक़ व बातिल पर ग़ौर करके हक़ की ताईद और बातिल की तरदीद कर सकते। गोश्तख़ोरी भी उनही वाम मार्गी शारहों की कार्यवाही है इसलिये उन्ही को राक्षस कहना बजा है। लेकिन वेदों में किसी जगह गोश्त का खाना नहीं लिखा इसलिये बिला शक व शुबहा ऐसी ऐसी झूठी बातों का पाप इन शारहों को और नीज़ उनको जिन्होंने वेदों को जानने सुनने के बग़ैर ही मनमानी मज़म्मत की है लगेगा। सच तो ये है कि जिन्होंने वेदों की मुख़ालफ़त की और करते हैं या करेंगे वह जिहालत के अंधेरे में पड़े हुए सुख के अवज़ जितना हैबतनाक दुख पायें उतना ही थोड़ा है इसलिये कुल नूऐ इन्सान को वेदों के मुताबिक़ चलना निहायत वाजिब है। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 12 पेज 279)
इस बात का वाक़ई अफ़सोस करना चाहिये कि मज़कूरा बाला तहरीर में बअज़ ऐसे अल्फ़ाज़ मौजूद हैं जो कि एक संजीदा और शाईस्ता बहस में नहीं होने चाहियें जिस तरह मिस्टर ह्यूम ने अपने मज़मून में स्वामी दयानन्द के लिये सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये हैं। इस तरह बल्कि इससे ज़्यादा स्वामी दयानन्द ने अपने मुख़ालफ़ीन के लिये मज़कूरा बाला तहरीर में सख़्त अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल किया है। अल्फ़ाज़ की सख़्ती या भद्देपन को नज़र अन्दाज़ करते हुए इस बात का देखना निहायत ज़रूरी है कि स्वामी दयानन्द की पोज़िशन क्या है। स्वामी दयानन्द चारवाक वालों, बुद्धों और जैनियों के बरखि़लाफ़ ये संगीन फ़तवा देता है कि उनकी अक़्ल मारी गयी है क्योंकि उनमें कोई वेदों का आलिम या वेदों का मअ़नों से पढ़ने और सुनने वाला मौजूद नहीं है। स्वामी दयानन्द का ये फ़तवा लाज़मी नहीं है कि रास्ती पर मुबनी हो। लेकिन स्वामी दयानन्द और वेदों की पोज़िशन को समझने के लिये स्वामी दयानन्द का बयान सब्र से सुन लेना ज़रूरी है। स्वामी दयानन्द कहता है कि जिन तफ़ासीर की बिना पर चारवाक वाले वेदों की मज़म्मत करते हैं वह वाम मार्गियों की तफ़ासीर हैं और कि वाम मार्गी वेदों से क़तई अंधेरे में थे। अगरचे स्वामी दयानन्द के मुख़ालिफ़ स्वामी दयानन्द के बारे में भी यही फ़तवे देते हैं कि दरअसल स्वामी दयानन्द वेदों को नहीं समझता था। लेकिन इस बहस में पड़ना चन्दाँ ज़रूरी नहीं है जबकि इस बात का पता लगाना मद्दे नज़र हो कि वह शख़्स जो
प्रोफ़ेसर मैक्स मूलर के अल्फ़ाज़ में
‘‘वेदों के पीछे दीवाना हो रहा हो’’ वह वेदों को किस शक्ल मे पेश करता है इसका फ़ैसला इस वक़्त तक नहीं हो सकता जब तक इस बात को तस्लीम या कम अज़ कम फ़र्ज़ न कर लिया जाये कि वाक़ई स्वामी दयानन्द का वाम मार्गियों की तफ़सीरों के बारे में जो ख़्याल है वह दुरूस्त है इसलिये अगर हमें स्वामी दयानन्द की पोज़िशन को समझना हो तो हमें कमाल इज़्ज़त से इसकी बात को सुनना पड़ेगा और अगर हम ये कहेंगे कि जिन मुफ़स्सिरीन को स्वामी दयानन्द वाम मार्गी बनाता है वह दरअसल दुरूस्त तफ़सीर कर गये हैं और ये कि स्वामी दयानन्द की तफ़सीर ग़लत है तो ये स्वामी दयानन्द और उन मुफ़स्सिरीन का बाहमी दंगल करवाना है। इसलिये हमें वेदों के बारे में कोई ठीक ठीक राय क़ायम करने का मौक़ा नहीं मिलेगा। न ही उन मुफ़स्सिरीन की राय जिनकी कि स्वामी दयानन्द के नज़दीक ‘‘अक़्ल मारी गयी’’ थी स्वामी दयानन्द के लिये कोई सनद हो सकती है और न ही उन मुफ़स्सिरीन की राय का इस सोसायटी पर कोई असर पड़ सकता है जो कि वेदों को स्वामी दयानन्द की तफ़सीर के मुताबिक़ ख़ुदा का कलाम मानती है पस लाज़मी बात है कि स्वामी दयानन्द और वेदों की पोज़िशन को समझने के लिये हम अगर दिल से नहीं तो कम अज़ कम हक़ीक़त को जानने की ख़ातिर स्वामी दयानन्द के क़दमों में बैठकर इन बातों का इक़रार करें कि -
(1) चारवाक वालों ने न वेदों को पढ़ा न सुना न देखा। वेदों का लासानी आलिम स्वामी दयानन्द था।
(2) सुधीर वग़ैरह मुफ़स्सिरीन भाँड व धूर्त, निशाचर और वाम मार्गी थे। उनकी तफ़ासीर हरगिज़ क़ाबिले ऐतबार नहीं हैं बल्कि उनके मुक़ाबले में स्वामी दयानन्द की तफ़सीर वेदों पर सनद है क्योंकि स्वामी दयानन्द आलिम फ़ाज़िल, योगी, ऋषि और मुर्ताज़ था।
(3) चारवाक, बोध, अभानक और जैनियों ने न वेदों को पढ़ा न सुना, न देखा इसलिये उन की अक़्ल मारी गयी और वह बेसरो पा वेदों की मज़म्मत करने लग गये और वाम मार्गियों की तफ़सीरों को देखकर वेदों के मुख़ालिफ़ बन गये और जिहालत के अथाह समन्दर में जा गिरे मगर स्वामी दयानन्द ने वेदों को पढ़ा सुना और देखा बल्कि उनका भाषीय भी किया और वह दिल व जान से वेदों का आशिक़ बल्कि वेदों के पीछे दीवाना था और कि वह हर एक क़िस्म की जिहालत से पाक था।
(4) जिन लोगों ने ऐसी शरहें(भाष्‍य)  लिखी हैं और जो वेदों को जानने और सुनने के बगै़र ही वेदों की मज़म्मत करते हैं वह पापी हैं मगर स्वामी दयानन्द ने जो तफ़सीर लिखी है इसमें इस क़िस्म की कोई मज़म्मत नहीं है इसलिये इस तफ़सीर को पढ़ने वाले पाप के नहीं बल्कि सवाब के मुस्तहिक़ हैं।
(5) अलग़रज़ वेदों के बारे में सही सही राय क़ायम करने के लिये स्वामी दयानन्द की तफ़सीर सनद है। बाक़ी तमाम तफ़ासीर जिनका कि ख़ुद स्वामी दयानन्द ने रद कर दिया है मरदूर हैं और वह हमारे लिये सनद नहीं हैं।
स्वामी दयानन्द के क़दमों में बैठकर अब ये प्रार्थना है कि वेदों की जिन तफ़ासीर को आप ने ग़लत क़रार दिया है वे वाक़ई ग़लत हैं। अब आप कृपा करके हमें अपनी तफ़सीर दीजिये ताकि हम जो वेदों के बारें में ‘‘वाम मार्गियों की तफ़सीरों को पढ़ पढ़कर हैरान व परेशान हो रहे थे आप की तफ़सीरों से वेदों पर हमारा ऐतक़ाद जम जाये और हम उनको ख़ुदा का कलाम मानने लग जायें। ये एक ऐसी माकूल पोज़िशन और प्रार्थना है कि जिसको स्वामी दयानन्द या कोई दूसरा माकूल इन्सान नापसन्द नहीं कर सकता। अब जबकि हम पहली तमाम तफ़ासीर को स्वामी दयानन्द के इरशाद के मुताबिक़ हाथ से फेंक चुके हैं। देखना चाहिये कि स्वामी दयानन्द इसके अवज़ में हमारे हाथ में क्या देता है।’’

तीसरी फ़सल
स्वामी दयानन्द और उनका मैयार (पैमाना,Standard, Qaulity)

स्वामी दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में  ईश्वर प्रार्थना का मज़मून दर्ज करते हुए लिखते हैं-
इस क़िस्म की प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और परमेश्वर इसको क़बूल करता है जैसे कि ये है कि ऐ परमेश्वर आप मेरे दुशमनों को फ़ना करो, मुझको सबसे बड़ा बनाओ, मेरी ही नेक नामी हो और सब मेरे मातेहत हो जायें वग़ैरह वग़ैरह। क्योंकि अगर दोनों दुश्मन एक दूसरे के फ़ना के वास्ते प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों को फ़ना कर देवे। अगर कोई कहे कि जिसकी मुहब्बत ज़्यादा होगी इसकी प्रार्थना सफल हो जायेगी तो हम कह सकते हैं कि जिसकी मुहब्बत कम हो उसका दुश्मन भी कम दर्जा फ़ना होना चाहिये। ऐसी जिहालत की प्रार्थना करते करते कोई ऐसी प्रार्थना भी करने लग जायेगा कि ऐसे परमेश्वर आप रोटी बनाकर हम को खिलाईये मेरे मकान में झाडू लगाईये, कपड़े धो दीजिये और खेती बाड़ी भी कर दीजिये। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 7)

स्वामी दयानन्द का मज़कूरा बाला ख़्यालात निहायत ही माकूल है वाक़ई जो शख़्स ये प्रार्थना करता है कि इसके दुशमन फ़ना हो जायें और वही ज़िन्दा रहे वह एक जाहिल इन्सान है और उसकी इस क़िस्म की प्रार्थना ख़ुद स्वामी दयानन्द के अल्फ़ाज़ में महज़ जिहालत की प्रार्थना है। इससे भी बढ़कर अगर कोई शख़्स हमें इस क़िस्म की प्रार्थना की तालीम दे तो वह उसको उझल समझना चाहिये और जिस किताब में इस क़िस्म की प्रार्थनायें दर्ज हो वह किताब किसी सूरत में भी माकूल नहीं कही जायेगी। इस पहलू में स्वामी दयानन्द की पोज़िशन बहुत माकूल है इसी उसूल की बिना पर स्वामी दयानन्द ने दीगर मज़ाहिब की मुक़द्दस किताबों पर बड़ी सख़्त नुकताचीनी की है। मेरा मक़सद यहाँ पर ज़ाहिर करना नहीं है कि वह नुकताचीनी कहाँ तक दुरूस्त है या ग़लत है। बल्कि स्वामी दयानन्द के इस उसूल को मालूम करना है जिनकी बिना पर वह दीगर मज़ाहिब की मानी हुई मुक़द्दस किताबो को ख़ुदा का कलाम मानने से मुनकिर हैं और वह उनके मुक़ाबले में वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं। स्वामी दयानन्द के इस मैयार या उसूल का पता लगाने के लिये मैं मुनासिब समझता हूँ कि यहाँ पर स्वामी दयानन्द की इस नुकताचीनी की चन्द मिसालें दर्ज कर दी जायें जो कि उन्होंने कलामे मजीद पर की हैं। कुरआन मजीद अहले इस्लाम की मज़हबी किताब है और मुसलमान इसको ख़ुदा का कलाम मानते हैं। बल्कि कलामे मजीद का दूसरा नाम कलामुल्लाह यानी ख़ुदा का कलाम है। इस बात के बताने की ज़रूरत है कि कुरआन मजीद अरबी ज़बान में है। ये भी साफ़ बात है कि स्वामी दयानन्द अरबी से बिल्कुल नावाक़िफ़ थे। मगर चूँकि कुरआन के आला से आला तर्जुमे दुनिया की मुख़्तलिफ़ ज़बानों में मौजूद हैं और उनमें बअज़ तराजिम अहले इस्लाम के आला पाये के उलेमा के लिये हुए हैं। इसलिये ये ऐतराज़ कि चूँकि स्वामी दयानन्द अरबी नहीं जानते थे। लिहाज़ा वह कुरआन मजीद पर किसी क़िस्म की नुकताचीनी करने का हक़ नहीं रखते थे। चन्द दिन वज़नदार नहीं रह जाता जबकि यह कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द ने उन ही तर्जुमों को अपने लिये काफ़ी समझा। जिनके बारे में उनको बताया गया था कि वह अहले इस्लाम के नज़दीक मुस्तनद हैं गो अहले इस्लाम उनको मुस्तनद न मानते हों चुनांचे ख़ुद स्वामी दयानन्द ने कुरआन मजीद पर नुकता चीनी शुरू करने से पेशतर अपनी इस पोज़िशन को बदीं अल्फ़ाज़ वाज़ेह कर दिया है।
जो ये चौदहवाँ समुल्लास मुसलमानों के मज़हब की बाबत लिखा है वह सिर्फ़ कुरआन की रू से लिखा गया है किसी और किताब के अक़ाईद की रू से नहीं। क्योंकि मुसलमान कुरआन शरीफ़ ही पर पूरा ऐतक़ाद रखते हैं। अगरचे मुख़्तलिफ़ फ़िरके़ होने के बाइस किसी ख़ास लफ़ज़ के मअ़नी वग़ैरह में इख़्तिलाफ़ रखें। तो भी कुरआन के बारे में सब मुत्तफ़िक़ हैं। कुरआन अरबी ज़बान में है। इसका जो तर्जुमा उर्दू में मौलवियों ने किया है इस तर्जुमे को बाहरूफ़ देवनागरी बज़बान आर्य भाषा अरबी के बड़े बड़े आलिमों से सही करवाने के बाद लिखा गया है। अगर कोई कहे कि ये तर्जुमा ठीक नहीं है तो इसको लाज़िम है कि मौलवी साहेबान की ठीक किये हुये तर्जुमे की पहले तरदीद करे बाद अज़ां इस मज़मून पर क़लम उठाये। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 14)

स्वामी दयानन्द की मज़कूरा बाला तहरीर से ज़ाहिर होता है कि उनके पास कुरआन मजीद का कोई ऐसा तर्जुमा मौजूद था उनके ख़्याल में मौलवियों ने किया था और जिसको स्वामी दयानन्द ने बज़अ़म ख़ुद ‘‘अरबी के बड़े बड़े आलिमों से सही करवाया, बहुत अच्छा होता अगर स्वामी दयानन्द अरबी के उन बड़े बड़े आलिमों के नाम’’ भी ज़ाहिर कर देते। जिनसे कि वह तर्जुमा दुरूस्त करवाया था ताकि इस बात का फ़ैसला हो जाता कि आया ऐसे उलेमा का तर्जुमा अहले इस्लाम के नज़दीक सनद हो सकता है या नहीं। मगर स्वामी दयनन्द ने उनके नाम को पोशीदा रखने में जो मसलेहत समझी होगी उस पर बहस करना बड़ा मुश्किल है। ताहम इतना कहा जा सकता है कि स्वामी दयानन्द ने कुरआन मजीद के जिस तर्जुमे की बिना पर कुरआन मजीद पर ऐतराज़ करते हैं वह तर्जुमा अहले इस्लाम के उलेमा का किया हुआ या मुसतनद मालूम नहीं होता। इसलिये जब तर्जुमा ही गै़र मुस्तनद हो तो इस पर जिस क़द्र भी नुकताचीनी की जायेगी वह ज़मीन पर गिर जायेगी। मैं इस बात को एक मिसाल के ज़रिये वाज़ेह कर देना चाहता हूँ कुरआन मजीद में इस बात को बतौर दावे के पेश किया गया है कि वह फ़साहत व बलाग़त में लासानी किताब है। चुनांचे मुख़ालिफ़ीने कुरआने मजीद को इसमें एक जगह बदीं अल्फ़ाज़ चैलेन्ज दिया गया है।

‘‘और वह जो हम ने अपने बन्दे (मुहम्मद स0अ0व0) पर (कुरआन) उतारा है। अगर तुमको इस में शक हो और ये समझते हो कि ये किताब ख़ुदा की किताब नहीं। बल्कि आदमी की बनायी हुई है और तुम अपने इस दावे में सच्चे हो तो इसी जैसी एक सूरत तुम भी बना लाओ और अल्लाह के सिवा अपने हिमायतियों को बुला लो। पस अगर (स) इतनी बात भी न कर सको और तुम हरगिज़ न कर सकोगे तो दोज़ख़ की आग से डरो जिसका ईंधन आदमी और पत्थर होंगे और वह (दोज़ख़) मुनकिरों के लिये दहकी दहकाई तैयार है (स)।’’

(तर्जुमा मौलवी हाफ़िज़ नज़ीर अहमद साहब) मज़कूरा बाला तर्जुमे में जिन अल्फ़ाज़ को (स) में कर दिया गया है उनको मद्दे नज़र रखना चाहिये क्योंकि इस तर्जुमे का स्वामी दयानन्द के ‘‘उलेमा’’ के तर्जुमे से मुक़ाबला करने में मदद मिलेगी स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास में जो कि कुरआन मजीद पर नुकताचीनी का बाब है। इस आयत के ऊपर भी ऐतराज़ किया है। लेकिन उन्होंने अरबी के उलेमा का जो तर्जुमा इस आयत का सत्यार्थ प्रकाश में दर्ज किया है वह बदीं अल्फ़ाज़ है और जो तुम इस चीज़ से शक सें हो जो हम ने अपने पैग़म्बर के ऊपर उतारी तो इसकी सी एक सूरत ले आओ और शाहिदों अपने को पुकारो। सिवाये अल्लाह के अगर हो तुम सच्चे फिर अगर न करो और हरगिज़ न करोगे तुम इस आग से डरो कि जिसका ईंधन आदमी हैं और काफ़िरों के वास्ते पत्थर तैयार किये गये हैं। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 14, ऐतराज़ नं. 8)

मज़कूरा बाला तर्जुमे के जिस आख़री हिस्से पर ख़त underline कर दिया गया वह क़ाबिले ग़ौर है। इस बात का पता नहीं लग सकता कि अरबी के जिन उलेमा ने स्वामी दयानन्द को ये सही तर्जुमा करके दिया था वह किस दारूलउलूम के सनद याफ़ता था। लेकिन मामूली अरबी जानने वाला शख़्स भी यह कह सकता है कि ये तर्जुमा बिल्कुल ग़लत है क्योंकि मज़कूरा बाला आयत में ऐसे अल्फ़ाज़ नदारद हैं कि जिनका तर्जुमा ‘‘काफ़िरों के वास्ते पत्थर तैयार किये गये हैं’’ हो सकता है पस जिस सूरत में कुरआन मजीद में ऐसी आयत ही नदारद है कि जिसका तर्जुमा सत्यार्थ प्रकाश में मज़कूरा बाला अल्फ़ाज़ में दिया गया है तो इस बेबुनियाद बात पर जिस क़द्र नुकताचीनी होगी वह नुकता चीनी भी ज़मीन पर गिर जायेगी। लिहाज़ा मज़कूरा बाला बेबुनियाद तर्जुमे की बिना पर स्वामी दयानन्द का ये लिखना कि उन्होंने कुरआन मजीद पर नुकताचीनी करने के लिये जिस तर्जुमे को आगे रखा है। वह बड़े बड़े मौलवियों और अरबी के उलेमा का सही किया हुआ तर्जुमा है। एक बेबुनियाद बात साबित होती है। ऐसी सूरत में सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास की बुनियाद दरिया के किनारे की रेत में डेह जाती है। ज़ाहिर है कि बुनियाद के गिरने के साथ ही इस पर जिस क़द्र महल तैयार किया गया हो वह भी गिर जाता है। लिहाज़ा सत्यार्थ प्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास कुरआन मजीद के बारे में कोई दुरूस्त नुकता चीनी नहीं कहा जा सकता और वह सारे का सारा ज़मीन पर गिर जाता है।.........
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(स्वामी दयानन्द इस चैलेंज के जवाब में 14 सम्मुल्लास की 8 वीं समीक्षा में कहते हैं फेजी ने अकबर के समय में कुरआन बना लिया था, स्‍वामी दयानंद की यह एतिहासिक अज्ञानता  हैरत की बात है] सभी जानते हैं कि फेजी ने टीका अर्थात कमेंटरी में एक फन दिखाया था, उसने बिना नुक्ते यानि बिन्दी का प्रयोग किये बिना कुरआन की तफसीर लिखी थी, जिस पर इस्लामी दुनिया का गर्व है , यह सूरा भी हमेशा सच की ओर बुलाने को प्रेरित करती रही है,    न्याय के दिन Day of judgment तक रहेगी )
"And if you (Arab pagans, Jews, and Christians) are in doubt concerning that which We have sent down (i.e. the Qur'an) to Our slave (Muhammad, Peace be upon him), then produce a surah (chapter) of the like thereof and call your witnesses (supporters and helpers) besides Allah, if you are truthful." [Qur'an 2:23]
This is a challenge that still stands today, as no one has met this challenge in the over one thousand four hundred (1,400) years since it was first made. This is a point upon which we ask the reader to ponder

 दयानंद जी लिखते हैं----''भला कोई बात है कि उसके जैसी कोई सूरत न बने क्‍या अकबर बादशाह के ज़माने में मौलवी फैजी ने बे बिन्‍दू (नुक्‍ता) का कुरआन नहीं तैयार किया था.......
मौलाना सनाउल्‍लाह अमृतसरी इस समीक्षा पर ''हक प्रकाश बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश'' में जवाब देते हैं-
शोध कर्ता व आपत्ती कर्तो को यह तो खबर नहीं कि बे बिन्‍दू  वाक्‍य क्‍या होता है और उत्तम शैली क्‍या है, उन्‍होंने सुन लिया कि फैजी ने बिना बिन्‍दू(नुक्‍ता) की टीका लिखी थी तो वे समझे कुरआन का मुकाबला हो गया, भला स्‍वामी जी यदि फैज़ी की टीका कुरआन की भान्ति बे मिसाल होती तो पहले फैजी ही को कयों कुरआन के बारे में सन्‍देह न होता और वह क्‍यों इस घमंड में इस्‍लाम से विमुख न होता कि मैंने कुरआन की जैसी किताब लिख डाली है बस आपके जवाब में यही काफी है......
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......... इस बयान से मेरा मतलब कुरआन मजीद का डिफ़ेन्स करना नहीं है और न ही कुरआन मजीद को मेरे डिफे़न्स की ज़्रूरत है। बल्कि यहाँ पर मेरा मुद्दा स्वामी दयानन्द जैसे मुहक्किक की पोज़िशन का पता लगाना है कि वह किन वजूहात पर किसी मुक़द्दस या इलहामी किताब का फ़ैसला करने के लिये तैयार हैं। नक़र कुफ्ऱ कुफ्ऱ तबाशद को मद्दे नज़र रखते हुये ज़रूरी मालूम होता है कि मैं यहाँ पर चन्द ऐसी इबारतें सत्यार्थ प्रकाश में से नक़ल कर दूँ कि जिनकी बिना पर स्वामी दयानन्द ने कुरआन मजीद को इलहामी किताब मानने से इनकार कर दिया है। चुनांचे वह बदीं अल्फ़ाज़ है।
कुरआन (1)
सब तारीफ़ वास्ते अल्लाह के जो परवरदिगार आलमों का बख़्शिश करने वाला मेहरबान है।
स्वामी दयानन्द (1)
अगर कुरआन का ख़ुदा दुनिया का परवरदिगार होता और सब पर बख़्शिश और रहम किया करता तो दूसरे मज़हब वालों और हैवानात वग़ैरह को भी क़त्ल करवाने का हुक्म न देता।
कुरआन (15)
और जब लिया हम ने अहद तुम्हारा न डालो तुम लहू अपने आपस के और न निकाल दो किसी आपसी अपने को घरों अपने से फिर इक़रार किया तुम ने और तुम शाहिद हो फिर तुम वह लोग हो कि मार डालते हो आपस अपने को और निकाल देते हो एक फ़िरक़े को आप में से घरों उनके से।
स्वामी दयानन्द (17)
भला इक़रार करना और कराना महदूदुल अक़ल आदमियों की बात है या ख़ुदा की आपस में लहू न बहाना और अपने हम मज़हबों को घर से न निकालना और दूसरे मज़हब वालों का लहू बहाना और घर से उन्हें निकाल देना भला कौन सी अच्छी बात है। ये तो बेवकूफ़ी और तरफ़दारी से भरी हुई फज़्ाूल बात है।
कुरआन (20)
काफ़िरों पर लानत अल्लाह की।
स्वामी दयानन्द (20)
जिस तरह तुम ग़ैर मज़हब वालों को काफ़िर कहते हो उसी तरह क्या वे तुम को काफ़िर नहीं कहते और वह अपने मज़हब की तरफ़ से तुम्हें लानत देते हैं। ये सब झगड़े जिहालत के हैं।
कुरआन (33)
तुम पर मुरदार लहू और गोश्त सुअर का हराम है।
स्वामी दयानन्द (33)
जिस जानदार से ज़्यादा फ़ायदा पहुँचे मसलन् गाय वगै़रह उनके मारने की मुख़ालफ़त न करने से ख़ुदा दुनिया को नुक़सार पहुँचाने वाला साबित होता है और ईज़ा रसानी के गुनाह से बदनाम भी हो जाता है। ऐसी बातें ख़ुदा और ख़ुदा की किताब की हरगिज़ नहीं हो सकतीं।
कुरआन (35)
अल्लाह की राह में लड़ो, उनसे जो तुम से लड़ते हैं, मार डालो तुम उसको जहाँ पाओ क़त्ल से कुफ्ऱ बुरा है।
स्वामी दयानन्द (35)
बिला क़सूर किसी को मारना सख़्त गुनाह है। उनके नज़दीक मज़हब का क़बूल न करना कुफ्ऱ है और काफ़िर के क़त्ल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। उनका मज़हब गै़र मज़हब वालों से सख़्त क़लम करना सिखाता है। ये बात न ख़ुदा की न ख़ुदा के मोअ़तक़िद आलिम की और न ख़ुदा की किताब की हो सकती है।
कुरआन (36)
और अल्लाह नहीं दोस्त रखता फ़साद को। ऐ लोगो कि ईमान लाये हो दाखि़ल हो बीच इस्लाम के।
स्वामी दयानन्द (36)
अगर अल्लाह फ़साद नहीं चाहता तो क्यों आप ही मुसलमानों को फ़साद करने पर आमादा करता है। और मुफ़सिद मुसलमानों से दोस्ती करता है। अगर मुसलमानों के मज़हब में दाखि़ल होने से ख़ुदा राज़ी होता है। तो वह मुसलमानों का ही तरफ़दार है। सब दुनिया का ख़ुदा नहीं। इससे ये ज़ाहिर होता है कि न कुरआन ख़ुदा का बना हुआ न उसमें कहा हुआ सच्चा ख़ुदा हो सकता है।
कुरआन (48)
मुसलमानों को चाहिये कि वह काफ़िरों को दोस्त न बनायें, सिवायें मुसलमानों के जो कोई ये करे सो वह अल्लाह की तरफ़ से नहीं है।
स्वामी दयानन्द (48)
अब देखिये तअस्सुब की बातें जो दीने इस्लाम में नहीं हैं। उनको काफ़िर क़रार दिया गया है। गै़र मज़हब के नेकूकारों से भी दोस्ती न रखना और बद मुसलमानों ही से दोस्ती रखने की तालीम देना ख़ुदा के शायान नहीं। इसलिये ये कुरआन कुरआन का ख़ुदा और मुसलान लोग महज़ तअस्सुब जिहालत से पुर हैं और मुसलमान लोग तारीकी में हैं।
कुरआन (52)
और मदद दे हम को ऊपर क़ौमे काफ़िरों के।
स्वामी दयानन्द (52)
देखिये मुसलमानों की ग़लती कि जो अपने मज़हब के नहीं। उनके मारने के वास्ते ख़ुदा से दुआ करते हैं। क्या ख़ुदा सादा लौह है जो उनकी बात मान लेगा।
कुरआन (58)
और न बन्द करें हाथों अपने को पस पकड़ो उनको और मार डालो उनको जहाँ पाओ।
स्वामी दयानन्द (58)
अब देखिये परले दर्जे के तअस्सुब की बात कि जो मुसलमान न हो। इसको जहाँ पाओ मार डालो। और मुसलमान को न मारो, भूल से भी मुसलमान के मारने में दोज़ख़ और औरों के मारने में बहिश्त मिलेगा। ऐसी तालीम कुऐं में डालनी चाहिये, ऐसी किताब ऐसे पैगम्बर, ऐसे ख़ुदा और ऐसे मज़हब से सिवाये नुक़सान के फ़ायदा कुछ भी नहीं। उनको न होना अच्छा है। ऐसे जाहिलाना मज़हबों से अक़्लमंदों को अलेहदा रहकर वेदिक अहकाम को तसलीम करना चाहिये क्योंकि उनमें झूठ जरा भी नहीं है।
कुरआन (76)
सवाल करते हैं तुझ को लूटों से कि लूटें वास्ते अल्लाह के और रसूल के हैं पस डरो अल्लाह से।
स्वामी दयानन्द (76)
तअज्जुब है कि जो लूट मचावें, डाकू के काम करें, करावें वह ख़ुदा पैग़म्बर और ईमान्दार कहलावें। साथ ही अल्लाह का डर बतलाते और डाका मारते जाते हैं। फिर ये कहते शर्म नहीं आती कि हमारा मज़हब अच्छा है। इससे बढ़कर और क्या बुरी बात हो सकती है कि तअस्सुब को छोड़कर सच्चे वेदिक धर्म को मुसलमान क़बूल नहीं करते।
कुरआन (77)
और काटे जड़ काफ़िरों की। पस मारो ऊपर गर्दन के और मारो उनमें से हर एक पूरी पर।
स्वामी दयानन्द (77)
वाह जी वाह ख़ुदा और पैग़म्बर ख़ूब रहम दिल हैं। जो लोग मज़हबे इस्लाम में नहीं। उन काफ़िरों की जड़ काटने इनकी गर्दन मारने और उनको जोड़ों को काटने का ख़ुदा हुक्म देता है और इस काम में उनका ममदू व मअ़ाविन बनता है। क्या ये ख़ुदा रावण से कुछ कम है। यह सब फ़रेब कुरआन के मुसन्न्ािफ़ का है। ख़ुदा का नहीं। अगर ख़ुदा का हो। तो ऐसा ख़ुदा हम से दूर रहे और हम उससे दूर रहें।
कुरआन (87)
ऐ लोगो जो ईमान लाये हो लड़ो उन लोगों से जो लोगों से पास तुम्हारे हैं, काफ़िरो में से।
स्वामी दयानन्द (87)
देखिये मुहसिन कशी की तालीम, ख़ुदा मुसलमानों को सिखलाता है कि पड़ोसियों और ग़्ाुलामों से लड़ाई करो और मौक़ा पाकर लड़ो या क़त्ल करो।
कुरआन (128)
और वह लोग कि ईज़ा देते हैं। मुसलमानों को और मुसलमान औरतों को बगै़र इसके कि बुरा किया हो उन्होंने पस तहक़ीक़ उठाया उन्होंने बुहतान और गुनाह ज़ाहिर लानत है। उन पर मारे जायें। जहाँ पाये जायें पकड़े जायें और क़त्ल किये जायें।
स्वामी दयानन्द (128)
वाह रे ग़दर मचाने वाले ख़ुदा और नबी तुम से तो बेरहम दुनिया में बहुत थोड़े होंगे। ये जो लिखा है कि गै़र लोग जहाँ मिलें उनको पकड़ों और मारों। वैसा ही अगर मुसलमानों से गै़र मज़हब वाले बरताव करें। तो उनको ये बात बुरी लगेगी या नहीं। वाह कैसे मूज़्ाी पैगम्बर हैं कि ख़ुदा से दूसरें को दुख देने की दुआ माँगते हैं। उससे उनकी तरफ़दारी, ख़ुदग़र्ज़ी और सख़्त ज़्ाुल्म का सबूत मिलता है।
कुरआन (140)
पस जब मुलाक़ात करो तुम इन लोगों से कि काफ़िर हुये पस मारो गर्दनें उनकी यहाँ तक कि जब चूर कर दो उनको। पस मुहकिम करो। कै़द करना और बहुत बस्तियाँ थीं कि वह सख़्त थीं कुव्वत में बस्ती तेरी से जिसने निकाल दिया तुझ को। हलाक किया हम ने उनको पस न हुआ कोई मदद देने वाला वास्ते उनके।
स्वामी दयानन्द (140)
इसलिये ये कुरआन, ख़ुदा और मुसलमान ग़दर मचानेऽह्न तकलीफ़ देने और अपना मतलब निकालने वाले ज़ालिम हैं। जैसा यहाँ लिखा है। वैसा ही अगर दूसरा कोई गै़र मज़हब वाला मुसलमानों पर करे। तो मुसलमानों को भी वैसा ही दुख जैसा कि दूसरों को देते हैं हो या नहीं और ख़ुदा की तरफ़दारी देखिये। जिन्होंने मुहम्मद स0अ0व0 साहब को निकाल दिया। उनको ख़ुदा ने हलाक कर डाला।
कुरआन (142)
तहक़ीक़ अल्लाह दोस्त रखता है। उन लोगों को कि लड़ते हैं बीच राह उसकी के।
स्वामी दयानन्द (142)
वाह ठीक है। ऐसी ऐसी बातों की हिदायत करके बेचारे एक अरब के बाशिन्दों को सबसे लड़ाया दुशमन बनाकर बाहम तकलीफ़ दिलाई और मज़हब का झंडा बुलन्द करके लड़ाई फैलाई। ऐसे को कोई अक़्लमंद ख़ुदा कभी नहीं  मान सकता। जो क़ौम में फ़साद बढ़ा दे। वही सब को तकलीफ़ देह होता है।
स्वामी दयानन्द
अब इस कुरआन के मज़मून को लिखकर आक़िलों के पेशे नज़र करता हूँ कि ये किताब कैसी है मुझ से पूछो। तो ये किताब न ख़ुदा न आलिम की बनाई हुई और न इल्म की हो सकती है। ये तो बहुत थोड़े से नुक़्स ज़ाहिर किये। इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपनी उम्र बेफ़ायदा ज़ाये न करें। जो कुछ इस में थोड़ी सी सच्चाई है वह वेद वगै़रह इल्मी किताबों के मुताबिक़ होने से जैसे मुझको मन्जूर है वैसे और भी मज़हब के ज़िद और तअस्सुब से मुबर्रा आलिमों और आक़िलों को मन्‍जूर है। इसके सिवाये जो कुछ इसमें हैं वह सब लाइल्मी की बातें और तोहमात हैं। और इन्सान की रूह को मिस्ल हैवान के बनाने, अमन में ख़लल डालकर फ़साद मचाने, इन्सानों में नाइत्तफ़ाक़ी फैलाने, बाहम तकलीफ़ को बढ़ाने वाला मज़मून है और खै़र व बरकत दोष का तो गोया कुरआन ख़ज़ाना ही है।

मज़कूरा बाला नुकताचीनी को मैंने इसलिये नक़ल किया है ताकि स्वामी दयानन्द की इलहामी किताब के बारे में सही पोज़िशन का पता लग सके ये कहना कुरआन मजीद के जिन तराजिम की बिना पर स्वामी दयानन्द ने इस पर नुकताचीनी की है इन तराजिम में कुरआन मजीद के सही मफ़हूम को समझकर नुकता चीनी की है एक बहस तलबे मआमला है जिसका किसी क़द्र जवाब इस मज़मून के शुरू में दिया जा चुका है। जैसे कि मैं पहले भी अर्ज़ कर चुका हूँ। इस जगह मेरा मुद्दा कुरआन मजीद को डिफे़न्ड करना नहीं है बल्कि स्वामी दयानन्द की तहक़ीक़ात से फ़ायदा उठाना है कि वह किन वजूहात पर किसी किताब के इलहामी या ख़ुदा के कलाम हो सकते हैं। चुनांचे उनके मज़कूरा बाला ख़्यालात से जो कि उन्होंने कुरआन मजीद के बारे में ज़ाहिर किये हैं, मुख़्तसरन् अल्फ़ाज़ में नतीजा निकाला जा सकता है कि वह किसी ऐसी किताब को इलहामी नहीं मान सकते जिसमें कि हैवानों के मारने, अपने दुशमनों से सख़्ती करने, उनको क़त्ल करने गै़र मज़हब के लोगों को काफ़िर कहने और उनको क़त्ल करने वग़ैरह की तालीम मौजूद हो। या दूसरे लफ़ज़ों में ख़ुदा का कलाम वही किताब हो सकती है, जिसमें इन्सानों या हैवानों के क़त्ल करने की तालीम मौजूद न हो वगै़रह वगै़रह, उन मैअ़यारों में से जो स्वामी दयानन्द की तहरीर के मुतालऐ से मज़हबी किताबों के इलहामी होने या न होने के बारे में क़ायम किये जा सकते हैं। ये एक मैअ़यार या उसूल है। स्वामी दयानन्द ने इसी मैअ़यार से अहले इस्लाम की मुक़द्दस किताब को परखा और इसी उसूल की बिना पर इसको इलहामी किताब के दर्जे से साक़ित कर दिया और इसकी बजाये वेदों को इलहामी या ख़ुदा का कलाम क़रार दिया। मैं ये नहीं कहूँगा कि स्वामी दयानन्द का ये मैअ़यार ग़लत है। बल्कि देखना चाहिये कि आया इसी मैअ़यार पर अगर वेदों को रखकर परखा जाये तो वह इलहामी या ख़ुदा का कलाम हो सकता है या नहीं। मैं इस बात पर बहस नहीं करूँगा कि वेद में ख़रगोश, हिरन, ऊँट, बकरा, नील गाय वगै़रह के मारने की इजाज़त है। ये तो वेदों की मामूली सी बात है। (देखो यजुर्वेद अध्याय 13) बल्कि मैं इस बात पर बहस करूँगा कि वेद में इन्सानों के साथ किस क़िस्म का सुलूक रवा रखा गया है।

चौथी फ़सल
स्वामी दयानन्द और वेद

पेशतर इसके कि स्वामी दयानन्द के पेशकरदा मैअ़यार पर वेद को परखा जाये ये ज़रूरी मालूम होता है कि मैं एक ऐतराज़ का जवाब दे दूँ जिस वक़्त मैंने पहले ही पहल वेदों के इलहामी होने से इनकार का ऐलान किया था उस वक़्त वेदों को इलहामी मानने वालों ने मेरी बात का जवाब देने की बजाये ये हुज्जत खड़ी की थी कि चूँकि

तुमने वेदों को नहीं पढ़ा इसलिये तुम क्योंकर कह सकते हो कि वेद ख़ुदा का कलाम नहीं है। पस तुम्हारा कोई हक़ नहीं है कि तुम वेदों पर नुकता चीनी करो। अगर इस हुज्जत को सही तसलीम कर लिया जाये तो सवाल पैदा होगा कि स्वामी दयानन्द का क्या हक़ था कि उन्होंने कुरआन पर नुकताचीनी की जबकि ये अम्र वाक़िआ है कि स्वामी दयानन्द अरबी, फ़ारसी, उर्दू और अंग्रेज़ी से क़तई महरूम थे और ये भी अम्र वाक़िआ है कि स्वामी दयानन्द के ज़माने में अगरचे कुरआन अरबी में मौजूद था और इसके तराजिम फ़ारसी उर्दू और अंग्रेज़ी में भी मौजूद थे मगर हिन्दी में इसका कोई तर्जुमा नहीं था और स्वामी दयानन्द सिवाये हिन्दी और संस्कृत के मज़कूरा बाला ज़बानों से क़तई नाबलद थे। इसी तरह स्वामी दयानन्द का क्या हक़ था कि उन्होंने सिखों की मुक़द्दस किताब ग्रंथ साहिब पर नुकता चीनी की। हालाँकि ये किताब गुरुमुखी में है और स्वामी दयानन्द गुरुमुखी से बिल्कुल नाआशना थे



 पस अगर वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की मज़कूरा बाला हुज्जत को तसलीम कर लिया जाये तो स्वामी दयानन्द की पोज़िशन बहुत नाज़्ाुक हो जाती है। अगर स्वामी दयानन्द इस हुज्जत का क़ायल होता तो वह कम से कम कुरआन और गुरूग्रंथ साहिब के बारे में एक लफ़्ज़ भी न लिख सकता। मगर स्वामी दयानन्द एक माकूल इन्सान था और वह इस क़िस्म की नामाकूल हुज्जतों को ज़्यादा वुक़अ़त नहीं देता था जिस तरह इस ने दीगर मज़ाहिब की कुतुबे मुक़द्दसा के इन तराजिम को जो कि उसको मुसतनद बताये गये थे गो वह दर हक़ीक़त मुसतनद न हों। आगे रखकर उन पर नुकता चीनी करते हुए अपनी राय का इज़हार किया है इसी तरह हर एक शख़्स को ये हक़ हासिल है कि वह स्वामी दयानन्द के वेद भाष्‍य को जो कि स्वामी दयानन्द और आर्य समाज के नज़दीक मुसतनद है, सामने रखकर वेदों के मुतअल्लिक़ अपनी राय का इज़हार करे। स्वामी दयानन्द ने कुरआन पर नुकता चीनी करने से पहले ही लिख दिया था कि-
‘‘अगर कोई कहे कि ये तर्जुमा ठीक नहीं है तो इसको लाज़िम है कि मौलवी साहेबान के किये हुए तर्जुमों की पहले तरदीद करे इसके बाद इस मज़मून पर क़लम उठाये। दीबाचा ज़िमनी समुल्लास नम्बर 14 सत्यार्थ प्रकाश’’।
इसी तरह जो शख़्स स्वामी दयानन्द के वेद  भाष्‍य  को मुसतनद मानकर इसकी बिना पर वेदों के मुतअल्लिक़ कुछ लिखता है। इसका वह मज़मून उस वक़्त तक रद्द नहीं हो सकता जब तक कि स्वामी दयानन्द के भाषीय को ग़लत साबित करके स्वामी दयानन्द पर वही फ़तवा न लगाया जाये जो कि उसने महेधर वगै़रह मुफ़स्सिरीन पर लगाया है। ग़ालिबन् कोई शख़्स भी स्वामी दयानन्द पर ऐसा फ़तवा लगाने के लिये तैयार  नहीं  होगा। चूँकि स्वामी दयान्नद वेदों को कलामे इलाही मानता था और उनके लिये इसके दिल में अज़हद इज़्ज़त थी और वेदों की ख़ातिर ही उसने दीगर मज़हब की मुक़द्दस किताबों का खंडन किया। इसलिये ये नामुम्किन है कि उसने वेदों की तफ़सीर करते वक़्त इस नियत से काम लिया हो जिस नियत से कि इसके नज़दीक दीगर मुफ़स्सिरीन वेद ने काम लिया था। वेदों के बारे में स्वामी दयानन्द के क़ौल की तसदीक़ स्वामी दयानन्द की तफ़सीर बढ़कर और किसी तरह नहीं हो सकती। मैं इस बात को ज़रूरी नहीं समझता कि यहाँ पर वेद मंतरों की इबारत को नक़ल करूँ बल्कि इस तर्जुमे को भी मअ़ हवालात के पेश करता जाऊँगा जो कि स्वामी दयानन्द ने किया है और जिसको मैंने लफ़्ज़ बालफ़्ज़ उर्दू हरूफ़ में किताब की शक्ल में शायेअ़ कर दिया है। सिर्फ़ इस बात को देखना चाहता हूँ कि आया वेदों को इसी रोशनी में पढ़कर जिस रोशनी में कि स्वामी दयानन्द को पेश करता है। उनको ख़ुदा का कलाम माना जा सकता है या नहीं। मैं अब स्वामी दयानन्द के यजुर्वेद  भाष्‍य  में से चन्द मंत्र यहाँ पर पेश करूँगा और ये दिखाऊँगा कि ख़ुद स्वामी दयानन्द का उसूल या सिद्धान्त क्या है जो कि वह कुरआन पर नुकताचीनी करते हुए ज़ाहिर कर चुके हैं। और जिसकी चन्द मिसालें मैं ऊपर दर्ज कर चुका हूँ। और वेद क्या तालीम देता है आया वह तालीम स्वामी दयानन्द के ख़ुद मुक़र्रर कर्दा मैयार सिद्धान्त के मुताबिक़ ख़ुदा की किताब की तालीम हो सकती है या कि महज़ इन्सानी दिमाग़ की इख़्तराअ़ है चुनांचे -

धर्म के मुख़ालिफ़ों को ज़िन्दा आग में जला दो

स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि जिस किताब की ये तालीम हो कि जो तुम्हारे मज़हब को नहीं मानते उनको क़त्ल कर डालो ऐसी तालीम को कुऐं में डाल देना चाहिये। क्यों कि ऐसी किताब और इस किताब के ख़ुदा को मानने में सिवायें नुक़सान के कुछ फायदा नहीं है। उनका न होना अच्छा है, ऐसी जाहिलाना मज़हबों से अक़्लमंदों को अलेहदा रहकर वेदों के अहकाम को तसलीम करना चाहिये क्यों कि इनमें झूठ ज़रा भी नहीं है। ये स्वामी दयानन्द का पेश करदा मैअ़यार है। अब इसी मैअ़यार पर वेद के अहकाम को परखना चाहिये। वेद में लिखा है।
‘‘ऐ राजपुरूष! आप धर्म के मुख़ालिफ़ दुशमनों को आग में जला डालें ऐ जाह व जलाल वाले पुरूष वह जो हमारे दुशमनों को हौसला देता है। आप इसको उल्टा लटकाकर ख़ुश्क लकड़ी की तरह जलायें। (यजुर्वेद 13/12)’’

चूँकि वेद के मज़कूरा बाला हुक्म में धर्म के मुख़ालिफ़ों को ज़िन्दा आग में जला डालने की तालीम है इसलिये स्वामी दयानन्द के ख़ुद पेशकरदा मैअ़यार के मुताबिक़ ये तालीम कुऐं में डालने के लायक़ है या मानने के लायक़?

 इस का फ़ैसला बड़ा आसान है और स्वामी दयानन्द के अपने ही अल्फ़ाज़ में ऐसी किताब और इस किताब के ख़ुदा को मानने में सिवाये नुक़सान के कुछ फ़ायदा नहीं है। क्योंकि बक़ौल स्वामी दयानन्द इनका न होना अच्छा है और कि ऐसी जाहिलाना तालीम से अक़्लमंदों को अलेहदा रहना चाहिये चूँकि स्वामी दयानन्द का इरशाद निहायत माकूल है। इसलिये मैं ऐसी किताब को बक़ौले स्वामी दयानन्द सरासर नुक़सानदेह समझता हूँ और मैं इसको किसी सूरत में ख़ुदा की किताब तसलीम नहीं कर सकता। दीगर अक़्लमंदों को भी बकौ़ल स्वामी दयानन्द ऐसी जाहिलाना तालीम से अलेहदा रहना चाहिये।
दुशमनों के गाँव को उजाड़ दो
स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि ये सख़्त बेशर्मी की बात है कि एक तरफ़ तो लूट मचाई जाये, डाके मारे जायें और दूसरी तरफ़ ये भी कहा जाये कि ये ख़ुदा की तालीम है। जिस मज़हब में ऐसी तालीम हो इसको तरक करके वेदों को न मानना सख़्त बुरी बात है। स्वामी दयानन्द का मज़कूरा बाला मैअ़यार बहुत उमदा है। अब इसी मैअ़यार पर वेदों की तालीम को रखकर देखना चाहिये। वेद में लिखा है।
‘‘ऐ तेजधारी विद्वान पुरूष! आप तेज़-रो दुश्मन के खाने पीने या दीगर काम काज के मक़ामात को अच्छी तरह उजाड़ें और इनको अपनी तमाम ताक़त से मारें। (यजुर्वेद 13/13)’’
चूँकि मज़कूरा बाला वेद मंत्र में जिसका कि स्वामी दयानन्द ने ख़ुद ही तर्जुमा किया। दुशमनों के खेतों को उजाड़ने और उनके गाँव को लूटने का हुक्म है। इसलिये बक़ौल स्वामी दयानन्द ये सख़्त शर्म की बात है कि ऐसी तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब किया जाये। मेरे नज़दीक स्वामी दयानन्द की बात ज़्यादा माकूल है। बानिस्बत इस हुक्म के जो कि वेद में ख़ुदा की तरफ़ मनसूब किया जाता है। अगर मैं ऐसी तालीम को तर्क न करूँ तो ये बकौ़ल स्वामी दयानन्द सख़्त बुरी बात होगी। यही वजह है कि मैं वेद को ख़ुदा का कलाम नहीं मानता और नहीं मान सकता और किसी भी हक़ पसन्द को इस क़िस्म की तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करते हुए डरना चाहिये।
अपने मुख़ालिफ़ों को शेर के मुँह में डाल दो
स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त है कि जिस तरह दूसरे लोग अगर तुम से दुशमनी करें तो वह तुम को बुरे लगते हैं। इसी तरह अगर तुम उनसे दुशमनी करोगे। तुम उनको बुरे लगोगे पस दुशमनी की बिना पर दूसरों को क़त्ल करना और अपने आप को दुशमनी से बाज़ न रखना मूज़्ाी लोगों का काम है क्योकि ये सख़्त तरफ़दारी और ख़ुदग़र्ज़ी की बात है। स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त बहुत उमदा है मगर वेद इसके बारे में क्या कहता है, लिखा है-
‘‘जिस ईज़ारसाँ शख़्स की हम लोग मुख़ालफ़त करते हैं या जो ईज़ा देने वाला हम से दुशमनी करता है इसको हम शेर वग़ैरह के मुँह में डाल दें। (यजुर्वेद 15/15)’’
मज़कूरा बाला वेद मंत्र में बक़ौल स्वामी दयानन्द इस बात की तालीम है कि अगर हम किसी से दुशमनी करें तो वह शख़्स शेर के मुँह में डाला जाये और अगर वह शख़्स हम से दुशमनी करे तो भी उसी को शेर के मुँह में डाला जाये गोया दोनों सूरतों में इसी को मुलज़िम गरदाना गया है पस बक़ौल स्वामी दयानन्द आया ये सख़्त मूज़्ाीपन है या नहीं। इस का फ़ैसला अक़्लमंद ख़ुद कर सकते हैं। इस में सख़्त तरफ़दारी और ख़ुदग़र्ज़ी पायी जाती है क्योंकि अगर दुशमनी की सज़ा शेर के मुँह में डालना ही है तो फिर हम को किसी से दुशमनी करने की पादाश में शेर के मुँह में क्यों न डाला जाये पस बक़ौल स्वामी दयानन्द ये महज़ ख़ुदग़र्ज़ लोगों की तालीम है। ख़ुदा का इसमें कोई दख़ल नहीं है। स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त है कि जिस तरह तुम दूसरों को दुष्ट और काफ़िर कहते हैं उसी तरह वह तुमको दुष्ट और काफ़िर कहते हैं।
द्वेष करने वालों को हवा से हलाक करो
फिर क्या वजह है कि उनको तो क़त्ल किया जाये और तुमको छोड़ दिया जाये जिस किताब में ऐसी तालीम हो। वह ख़ुदा की किताब नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द के इस सिद्धान्त के मुताबिक़ वेद का दूसरा मंत्र लेकर देखा जाता है चुनांचे लिखा है।
‘‘जिस दुष्ट से हम लोग द्वेष करें या जो दुष्ट हम से द्वेष करें हम उसको हवाओं से हलाक करें। (यजुर्वेद 15/16)’’
स्वामी दयानन्द के मज़कूरा बाला सिद्धान्त के मुताबिक़ वेद का ये मंत्र किसी सूरत में भी ख़ुदा का कलाम नहीं हो सकता क्योंकि इसमें द्वेष करने वाले दोनों है मगर एक को तो हलाक करने की तालीम है और दूसरे को जो द्वेष करता है हलाक करने की कोई तालीम नहीं है। ये महज़ इन्सानी दिमाग़ की इख़्तराअ़ है। पस बक़ौल स्वामी दयानन्द ये बात छोड़ने के क़ाबिल है।
राजा हमारे दुशमन को शेर के मुँह में डाल दे
स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि जो लोग बेगुनाहो को मारते, ग़दर मचाते और दूसरों से दुशमनी करते हैं वह सख़्त मूज़्ाी हैं और ये कि जिस किताब में इस क़िस्म की तालीम हो वह किताब अब जाहिलों की किताब समझनी चाहिये। स्वामी दयानन्द का इरशाद बहुत माकूल है मगर वेद में लिखा है -
‘‘हम लोग जिससे दुशमनी करें और जो हम से दुशमनी करे इसको हम शेर वग़ैरह के मुँह में डाल दें। राजा भी इसको शेर के मुँह में डाल दे। (यजुर्वेद 17/15)’’
ये स्वामी दयानन्द का वेद मंतर का ख़ुद कर्दा तर्जुमा है। इसमें इन लोगों को जो गो हम से दुशमनी वग़ैरह रखते हों मगर चूँकि हम इन से दुशमनी रखते हैं इसलिये इनको शेर के मुँह में डाल देना चाहिये और अगर हम ख़ुद ऐसा न कर सकें। तो राजा की मदद से इसको शेर के पिंजरे में डाल देना चाहिये ख़्वाह वह भला मानस कितना ही चिल्लाये कि महाराज मैं आप का दुशमन नहीं हूँ बेशक वह हमारा दुशमन नहीं है लेकिन हम तो उसके दुशमन हैं इसलिये इसकी सज़ा मौत है कैसा आला इनसाफ़ है। इसी किताब को ख़ुदा का कलाम मानना बक़ौल स्वामी दयानन्द सख़्त जिहालत है।
अपने मुख़ालिफ़ों को पानी में ग़र्क़ कर दो
अगर ख़ुदा नख़्वास्ता हम किसी ऐसी जगह रहते हों जहाँ अपने दुशमनों को हम शेर के मुँह में न डाल सकें या शेर हम को वहाँ न मिले तो हम अपने दुशमनों से क्या सुलूक करें इसका हल वेद में लिखा है-
‘‘जिससे हम द्वेष करते हैं या जो हम से द्वेष करता है इसको हम हवा और पानी के दुख देने वाले गन रूपी मुँह में डाल दें। (यजुर्वेद 18/15)’’
या दूसरे अल्फ़ाज़ मे हम को चाहिये कि अपने दुशमनों को जहाज़ में भरकर समन्दर में ग़र्क़ कर दें या कुऐं, तालाब और दरिया में डुबों दें अलग़रज़ इनको इस दुनिया से रूख़सत ज़रूर कर देना चाहिये क्योंकि वेद की यही तालीम है।
अपने दुशमनों को दरिन्दों से चरवा दो
मगर जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वाले हैं उनकी तमाम कोशिश यही होनी चाहिये कि वह अपने दुशमनों को दरिन्दों के मुँह में डाल दें, चुनांचे लिखा है-
‘‘हम लोग जिस दुष्ट से द्वेष करें या जो हम से द्वेष करे उसको हम लोग ख़ूंख़ार जानवरों के मुँह में डाल दें। (यजुर्वेद 19/15)’’
इससे मालूम होता है कि वेदों के ऐसे ऐसे मंत्र इस वहशी ज़माने की याद हैं जबकि इन्सानों को दरिन्दों से चरवा डाला जाता था चुनांचे रोमियों के ज़माने में गुलामों को शेरों के आगे डाल कर फड़वा डाला जाता था अगर  गुलाम लोग अपने आका़ओं के बदख़्वाह नहीं होते थे मगर चूँकि आक़ा इनको नापसन्द करते थे।
इसलिये वेद मंत्र के ऐन मुताबिक़ वह  गुलामों  को दरिन्दों से मरवा डालते थे। अंडरविकलीज़ नामी  गुलाम की इसी क़िस्म की कहानी बहुत से लोगों ने सुनी होगी।
दुशमनों को तड़पा तड़पा कर मारो
वेद के मंत्र जिस क़िस्म के ज़माने की याद दिलाते हैं उसको सामने लाकर बदन पर रौंगटे खड़े हो जाते हैं।
  • स्वामी दयानन्द ने हर चन्द इस बात को साबित करने की कोशिश की है कि वेद वहशी लोगों के गीत नहीं हैं मगर ख़ुद उनके वेद भाष्‍य से जाबजा इस बात का पता लगता है कि वे दरहक़ीक़त इस वहशी ज़माने की मुक़द्दस यादगार है जबकि  गुलामों  , महकूमों , या दुशमनों को अनवाअ़ व अक़साम की अज़ियतों से हलाक किया जाता था और हलाक करने वाले, इसमें ख़ास लज़्ज़त पाते थे। चुनांचे स्वामी दयानन्द के वेद भाषीय में लिखा है
  • ‘‘जिनसे हम लोग नफ़रत करते हैं या जिन को हम नाराज़ करते हैं या जो हम को दुख देते हैं उनको हम इन हवाओं के मुँह में डाल कर इस तरह दुख दें जिस तरह बिल्ली के मुँह में चूहा। (यजुर्वेद 65-66)’’

इससे मालूम होता है कि जिन लोगों को पुरोहित लेाग नापसन्द करते थे या जिन से वह नाराज़ हो जाते थे उनको वह हवा में मुअ़ल्लक़ लटकाकर इस तरह तड़पा तड़पा कर मारा करते थे जिस तरह बिल्ली चूहे को मारती है चुनांचे तीन मंतरों में मुतवातिर इस बात का ज़िक्र आया है कि जिन लोगों से तुम नफ़रत करते हो या जिन लोगों से तुम नाराज़ हो या जो लोग तुम्हारी तकलीफ़ का मौजब हैं, उनको इस तरह तड़पा तड़पा कर मार दो जिस तरह बिल्ली चूहे को मारती है अगरचे पीछे लिखा जा चुका है कि वेद में उनको उल्टा करके ज़िन्दा आग में जला डालने की सज़ा भी तजवीज़ की गयी है। मगर चूहे की तरह तड़पा तड़ापा कर मारना बेरहमी और संग दिली की इन्तहा है। जिस किताब में इस क़िस्म की तालीम हो वह किताब बक़ौल स्वामी दयानन्द इन्सान की रूह को मिस्ल हैवान के बनाने के, अमन में ख़लल डालने, फ़सादे मचाने, इन्सानों में ना इत्तफ़ाक़ी फैलाने, उनकी तकलीफ़ को बढ़ाने वाली साबित होती है और बक़ौल स्वामी दयानन्द ऐसी किताब न ख़ुदा की बनाई हो सकती है न किसी आलिम की।
दुशमनों के गाँव को जला दो
दुशमनो के साथ जिस बेरहमी का सुलूक करने की वेद में तालीम दी गयी है वह अपनी नज़ीर आप ही है। इसके अलावा दुशमनों के गाँव को जलाकर ख़ाक सियाह कर देने की वेद में जा बजा तालीम दी गयी है चुनांचे ख़ुद स्वामी दयानन्द एक मंतर का बदीं अल्फ़ाज़ तर्जुमा करता है।
‘‘ऐ ताक़तवर और रोशन ज़मीरे आलम इन्सान! जिस तहर हम लोग रोज़ खुले स्वभाव वालों के गाँव को आग की मानिन्द मारने वाले तुझ ख़ूबसूरत विद्वान को सब तरह से धारण करें, उसी तरह तू हम को धारण कर। (यजुर्वेद 26-11)’’
ऐ राजा! जिस तरह हिफ़ाज़त करने वाले आलिम को पुत्र शागिर्द सुख देने वाले..................आग वग़ैरह पदार्थों को हासिल करके वेदों के इल्म को जानने वाला होकर दुशमनों को मारने वाला और दुशमनों के गाँव को तबाह करके आप की जाह व हशमत को दो बाला करता है उसी तरह दीगर विद्वान लोग भी आपको विद्या और रोने से तरक़्क़ी दें। (यजुर्वेद 33-11)
मज़कूरा बाला वेद मंत्रों से साफ़ ज़ाहिर है कि किस तरह दुशमनों के गाँव को आग लगाने और उनको तबाह करने के काम को ‘‘रोशन ज़मीर इन्सानों’’ और ‘‘वेदों के आलिमों’’ का फ़र्ज़ मनसबी क़रार दिया गया है। स्वामी दयानन्द ने कुरआन और बाइबिल पर नुकता चीनी करते हुए जाबजा अपने उसूल का बदीं अल्फ़ाज़ इज़हार कियाहै कि जिस किताब में इस क़िस्म की तालीम हो। वह आलिमों की किताब नहीं हो सकती बल्कि इसको वहशियों की किताब कहना चाहिये। स्वामी दयानन्द की इस कसौटी पर परखने से इस बात का अफ़सोस से इक़रार करना पड़ता है कि वेद भी आलिमों की किताब साबित नहंी होते। उसको ख़ुदा का कलाम मानना तो महज़ कुफ्ऱ है।
औरतों को क़त्ले आम करने का हुक्म
स्वामी दयानन्द ने कुरआन पर नुकता चीनी करते हुए ऐतराज़ नम्बर 140 में अपने ख़्यालात को बदीं अल्फ़ाज़ ज़ाहिर किया है कि जो किताब या ख़ुदा इस क़िस्म की तालीम देते हों कि बिला वजह ग़दर मचाओ, बैठे बिठाये लोगों को ख़्वाह मख़्वाह तकलीफ़ दो और अपने मतलब की ख़ातिर दूसरों की गर्दनें काटो वह किताब न तो ख़ुदा की किताब हो सकती है और न ऐसा ख़ुदा मानने के लायक़ है। कुरआन में इस क़िस्म की तालीम है या नहीं। इस बात का जवाब कुरआन वाले दें। लेकिन इस में शक नहीं कि स्वामी दयानन्द का मैअ़यार बहुत दुरूस्त है। देखना चाहिये कि स्वामी दयानन्द वेदों से कैसी तालीम निकालते हैं पहले दिखाया जा चुका है कि वेदों की तालीम के मुताबिक़ दुशमनों से किस क़िस्म का सुलूक किया जाना चाहिये। वह तो मर्दों की बाबत था। अब औरतों की बाबत भी देखो चुनांचे लिखा है।
‘‘ऐ सिपेहसालार की स्त्री! तू मैदाने जंग की ख़्वाहिश करती हुई दूर देश में जाकर दुशमनों से लड़ाई कर और उनको मार कर फ़तह हासिल कर तू। उन दूर दराज़ के मुल्कों में रहने वाले दुशमनों में से एक को भी मारने के बगै़र मत छोड़।’’ (यजुर्वेद 45-17)
स्वामी दयानन्द के मैअ़यार के मुताबिक़ मज़कूरा बाला वेद मंतर न तो ख़ुदा का हुक्म हो सकता है न ख़ुदा की किताब का क्योंकि इसमें अपने मुल्क से दूर बैठे हुए लोगों को ख़्वाह मख़्वाह तंग करने उन पर जाकर छापा मारने और उनका क़त्ले आम करने की तालीम है। वह भी मर्दो के हाथ से नहीं बल्कि औरतों के हाथ से, जिस सूरत में कि वेदों के ज़माने में औरतें अपने दुशमनों का क़त्ले आम करती हों, इस सूरत में मर्द जिस क़द्र उनकी गर्दनें काटते हों उसी क़द्र थोड़ा है। इससे मालूम होता है कि वेदों में बअज़ मंतर ऐसी ख़ौफ़नाक और ख़तरनाक स्प्रिट अपने अन्दर रखते हैं जो कि इस वहशी ज़माने की याद है जबकि वेदों के मंतर घड़े ये कहना कि ऐसे मंतरों का प्रकाश ख़ुदा ने ख़ुद ही शुरू आग़ाज़े दुनिया में किया था बिल्कुल जिहालत और बक़ौल स्वामी दयानन्द ख़ुदा की ज़ात पाक पर एक बदनुमा धब्बा हैै।
बदकिरदारों की गर्दन काटो
स्वामी दयानन्द ने ज़ाहिर किया है कि जो किताब ये तालीम देती हो कि बदकिरदारों या काफ़िरों की गर्दन का उनकी बेख़कनी करो और इस काम में उनका ख़ुदा उनकी मदद करता हो। न तो वह किताब ख़ुदा की हो सकती है न ऐसा ख़ुदा ख़ुदा हो सकता है। बल्कि ये सब इस किताब के मुसन्निफ़ का फ़रेब समझना चाहिये। स्वामी दयानन्द का ये उसूल बहुत अच्छा है। मगर देखना चाहिये कि आया वेद इस उसूल के मुताबिक़ ख़ुदा की किताब साबित हो सकता है, या नहीं चुनांचे लिखा है।
‘‘ऐ इन्सान जिस तरह मैं बदकिरदारों की गर्दन काटता हूँ वैसे तू भी काट।’’ (यजुर्वेद 22-5)
स्वामी दयानन्द के ख़ुद साख़्ता मैअ़यार के मुताबिक़ जिस वेद में इस क़िस्म की तालीम हो कि जिसको वेदों के मानने वाले बदकिरदार होने का फ़तवा दे दें। उसकी ही गर्दन काट दी जाये ख़्वाह वह दरअसल बदकिरदार न भी हो। वह किताब किसी सूरत में भी ख़ुदा की किताब नहीं हो सकती और दूसरे अगर ये मान भी लिया जाये कि कोई बदकिरदार है तो क्या उसकी बदकिरदारी का इलाज उसकी गर्दन काटना ही हो सकता है हरगिज़ नहीं कोई डाक्टर ये नहीं कहेगा कि बीमारी का आसान इलाज बीमार की गर्दन काटना है। अगर ख़ुदा को ये मन्ज़ूर है कि इन्सान रूहानी अमराज़ से शिफ़ा पायें तो उन अमराज़ का इलाज होना चाहिये न कि मरीज़ों की ही गर्दन काट देनी चाहिये। पस बक़ौल स्वामी दयानन्द वेद ख़ुदा की किताब नहीं है। बल्कि ये महज़ चन्द इन्सानों के ख़्यालात के इज़हार का मजमूआ है। इन ख़्यालात में से बअज़ अच्छे हैं और बअज़ सख़्त वहशतनाक और फ़ासिद हैं।
मुख़ालिफ़ों को हब्स दवामी की सज़ा
ऐसे लोगों को जो हमारी किसी नाजायज़ हरकत से हम से नाराज़ हो जाते हों क्या सज़ा मिलनी चाहिये इसके मुतअल्लिक़ वेद में लिखा है-
‘‘जो दुष्ट हम लोगों से मुख़ालफ़त करता है या जिस दुष्ट से हम लोग मुख़ालफ़त करते हैं तुम इस बदकिरदार दुशमन को मुख़्तलिफ़ ज़ंजीरों से जकड़ों और उसको उन ज़ंजीरों से कभी मत छोड़ों। (यजुर्वेद 15-26/1)’’
गोया इसको हमेशा के लिये कै़द में मरने दिया जाये ख़्वाह वह हम से दुशमनी न भी करता हो और हमारा बड़ा ख़ैरख़्वाह हो। मगर चूँकि हम इससे दुशमनी करते हैं इसलिये इसको क़ैद कर दो ये महज़ इन्साफ़ का ख़ून करना है।
दुष्टों के साथ कै़द में सुलूक
और फिर ऐसे कै़दियों के साथ क़ैदख़ाने की कोठरी में क्या सुलूक करना चाहिये इसका ज़िक्र बदीं अल्फ़ाज़ में किया गया है।
‘‘ऐ दुष्ट इन्सान तू कभी भी हिदायत की रोशनी हासिल न कर सके तेरा आनन्द देने वाला इल्म का रस तुझे कभी भी आनन्द न दे।’’ (यजुर्वेद 26-1)
मौजूदा गवर्नमेन्ट का क़ायदा है कि वह क़ैदियों की तालीम व तरबीयत का भी इन्तज़ाम करती हैं और उनको सुधारने की कोशिश करती हैं मगर वेद कहता है कि ऐसे क़ैदियों को जिनको हम ने इसलिये उम्र क़ैद की सज़ा दी है क्योंकि हम उनसे नाराज़ हो गये हें कभी भी हिदायत की रोशनी नसीब न हो और वह हमेशा इल्म से महरूम रहें बल्कि अपना पहला लिखा पढ़ा भी भूल जायें ऐसी ख़ौफ़नाक तालीम को बक़ौल स्वामी दयानन्द ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना सख़्त जिहालत है।
जायज़ व नाजायज़ तरीक़ों से मुख़ालिफ़ों को हलाक करो
अपने मुख़ालिफ़ों को हलाक करने में जायज़ व नाजायज़ वसाईल की मुतलक़ परवाह नहीं करनी चाहिये चुनांचे लिखा है-
‘‘ऐ इन्सान.....जिस तरह भी दुशमनों को हलाक किया जा सके उसी क़िस्म के कामों को करके सदा ही राहत से ज़िन्दगी बसर करो।’’ (यजुर्वेद 25/1)
इससे मालूम होता है कि दुशमनों को हलाक करने के लिये ख़्वाह तुम को नापाक से नापाक शर्मनाक से शर्मनाक काम भी करना पड़े तो भी कर डालो। धर्म अधर्म की मुतलक़ परवाह न करो ऐसी तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना सख़्त ज़ुल्म है बल्कि बक़ौल स्वामी दयानन्द इस क़िस्म की बातें मुसन्निफ़ों के अपने ही फ़ासिद ख़्यालात होते हैं, ख़ुदा को इनसे क्या तअ़ल्लुक़।
दुशमनों की हलाकत के लिये प्रार्थना
स्वामी दयानन्द के नज़दीक दुशमनों की हलाकत के लिये परमात्मा से प्रार्थना करना जिहालत की बात है, जैसा कि पहले दिखाया जा चुका है, लेकिन वेदों में जाबजा ऐसे मंतर आते हैं जिनमें सिर्फ़ परमात्मा से दुशमनों की हलाकत के लिये प्रार्थना की गयी है बल्कि ख़ुद परमात्मा ने बशर्तेकि वेदों को इसका कलाम कहा जाये, ऐसे मंतरों को प्रकाश किया है मसलन्
(1) ‘‘हे परमात्मन! मैं बदकिरदार या दुशमनों की हलाकत के लिये... आप को अपने दिल मे क़ायम करता हूँ।’’ (यजुर्वेद 1/17)
(2) ‘‘हे परमेश्वर! मैं दुशमनों की हलाकत के लिये ... आपको अपने दिल में क़ायम करता हूँ। ऐ सबको धारण करने वाले परमेश्वर... मैं दुशमनों की हलाकत के लिये आपको ... बार बार अपने दिल में क़ायम करता हूँ।’’(यजुर्वेद 1/18)
स्वामी दयानन्द के मैअ़यार के मुताबिक़ वेदों के इस क़िस्म के मंतर जिन में कि परमात्मा से दुशमनों की हलाकत के लिये प्रार्थन की गयी है, महज़ जिहालत की अलामत है जिस किताब में इस क़िस्म की बातें हों, इसको बक़ौल स्वामी दयानन्द ख़ुदा का कलाम मानना सख़्त जिहालत है, पस वेद कलामे इलाही नहीं।
अपने दुशमनों की बेख़कीनी करो
वेद में तमाम इन्सानों के क़त्ल की तालीम है जो वेदों के मैअ़यार के मुताबिक़ बदकिरदार, बद अतवार, ख़ुर्दग़र्ज़, ज़ालिम, दान पुण्य न करने वाले हैं मसलन् -
‘‘मुझ को चाहिये कि कोशिश करके बदकिरदार और बदअतवार इन्सान की यक़ीनन् बेख़कीनी करूँ और जो दान पुण्य व धर्म से ख़ाली, ज़ालिम, बदकिरदार, दुशमन हैं उनकी सरीहन् बेख़कीनी करूँ।’’ (यजुर्वेद 1/7)
इस मंतर से हर एक शख़्स जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों के किसी इंस्टीट्यूशन को दान नहीं देता, या वह उनकी मुख़ालफ़त करता है वह ज़ालिम, बदकिरदार और वेदों का दुशमन है। मज़कूरा बाला सज़ा का मुस्तहिक़ हो सकता है, ऐसे मंतरों को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना जो हर एक नेक व बद को रोज़ी देता और उनकी परवरिश करता है, सख़्त गुनाह है। बक़ौल स्वामी दयानन्द ऐसी किताब न ख़ुदा की हो सकती है न किसी आलिम और नेक शख़्स की।
निहायत ही नामाकूल और कमीनेपन की दुआ
यूँ तो वेद के जिस क़द्र मंतर ऊपर दर्ज किये गये हैं उनमें से एक से एक ख़तरनाक तालीम का मज़हर है। लेकिन बअज़ मंतरों में परमात्मा से और राजा से सख़्त नामाकूल और कमीनगी से भरी हुई प्रार्थना की गयी है मसलन्-
‘‘हे परमात्मन् आप की कृपा से हम लोगों के पानी और अनाज वग़ैरह नबातात सरीशत मित्र (दोस्त) की मानिन्द हों और जो हम लोगों से दुशमनी रखता है या जिससे हम लोग दुशमनी करते हैं उसके लिये जल और अनाज वग़ैरह सबके सब दुख देने वाले दुशमन की मानिन्द हों। (यजुर्वेद 22/6)
स्वामी दयानन्द ने इस क़िस्म की प्रार्थनाओं को सत्यार्थ प्रकाश में महज़ जिहालत की प्रार्थनायें लिखा है क्योंकि ये साफ़ ज़ाहिर है कि हमारे कहने से परमात्मा हमारे दुशमनों पर अनाज और पानी का दरवाज़ा कभी बन्द नहीं कर सकता और फिर ये किस क़द्र कमीनेपन की दुआ है कि हम परमात्मा से ये दुआ करें कि अनाज पानी और हवा हमारे लिये तो आराम देने का मूजिब हों लेकिन जिन लोगों से हम दुशमनी करते हैं ख़्वाह वह लोग हम से दुशमनी न भी करते हों या जो लोग हम से हमारी किसी नाजायज़ हरकत पर दुशमनी करते हों उनके लिये अनाज पानी और हवा ज़ेहरीली हो जायें और वह उनको खाने पीने के साथ ही मर जायें। इस मुल्क में बअज़ कम्बख़्त जाहिल औरतों की आदत है कि जब वह आपस में लड़ पड़ा करती हैं तो वह एक दूसरे के दूध पूत की तबाही के लिये बददुआ करती हैं। दुशमनी के बारे में ये प्रार्थना करना उनके लिये हवा, पानी और अनाज को परमात्मा ज़ेहरीला कर दे, इसी क़िस्म की कमीनेपन की प्रार्थना है जो कि जाहिल के मज़कूरा बाला फ़अ़ल से भी बदतर है। क्या वह परमात्मा जिसने हर एक नेक व बद के लिये अनाज पानी हवा और सूरज और ज़मीन को यकसाँ पैदा किया है वह ऐसा कमीना हो सकता है कि वह इन्सानों को इस क़िस्म का इलहाम दे कि तुम मुझसे दुआ करो कि मैं तुम्हारे दुशमनों के लिये पानी, हवा अनाज को ज़ेहरीला कर दूँ। हालाँकि वह उन लोगों को भी हवा और पानी वगै़रह देता है जो कि परमात्मा को गालियाँ देते हैं और वह उनकी भी परवरिश करता है जो परमात्मा की हस्ती से मुनकिर हैं और वह ज़ेहरीले साँपों और ख़तरनाक दरिन्दों को भी ये चीज़ें देता है। फिर ये क्योंकर तसलीम किया जाये कि वह इन्सानों को मज़कूरा बाला क़िस्म की सख़्त नामाकूल और कमीनेपन की प्रार्थनायें करने का उपदेश कर सकता है। यक़ीनन् वह इस क़िस्म की कमीनगी का सबूत दे सकता, जब स्वामी दयानन्द जैसा माकूल शख़्स भी इस क़िस्म की दुआओं को जिहालत बताता है तो क्या परमात्मा स्वामी दयानन्द से भी माकूल नहीं है कि वह इस क़िस्म की प्रार्थना करने के लिये इन्सानों को उपदेश न करे पस इस क़िस्म के मंतरों को ख़ुदा की ज़ात पाक की तरफ़ मनसूब करना, ख़ुदा पर ख़तरनाक नामाकूल और कमीनेपन का इलज़ाम लगाना है। अलग़रज़ वेदों में अपने धर्म के मुख़ालिफ़ों या दुशमनों की बेख़कनी करने उनकी गर्दनें काटने, उनको ज़िन्दा आग में जलाने, समन्दर में ग़र्क़ करने, दरख़्तों से लटकाकर मारने, शेरों और भेड़ियों और दीगर ख़तरनाक दरिन्दों के मुँह में डालने और उनको अनवाअ़ व अक़साम के अज़ाबों से मारने के बारे में सैंकड़ों मंतर दर्ज हैं मज़कूरा बाला चन्द मंतर नमूने के तौर पर सिर्फ़ यजुर्वेद में से पेश किये गये हैं। उन मंतरों का तर्जुमा वही किया गया है जो कि स्वामी दयानन्द ने किया है। जब मैं इन मंतरों का मुतालेअ़ा करता हूँ तो मेरी रूह काँप जाती है कि मैं वेद को ख़ुदा का कलाम मानूँ चुनांचे मैं इसको ख़ुदा का कलाम मानना सख़्त कुफ्ऱ और गुनाह समझता हूँ और मेरा ये ख़्याल है कि कोई भी दयानतदार शख़्स वेदों की ऐसी तालीम को देखकर उनको ख़ुदा का कलाम तसलीम नहीं करेगा। ये तालीम हमें इस वक्त चन्दाँ नुक़सानदेह मालूम न हो, इसलिये कि इस पर अमल करने के लिये हमारे हाथ में पोलिटिकल या हुकूमत की ताक़त नहीं है। लेकिन ऐसी तालीम के ख़ौफ़नाक नताईज का इस वक्त पता लग सकता है जबकि ये तालीम एक ऐसी क़ौम के हाथ में आ जाती है जो कि बरसरे हुकूमत हो और वह अपने दुशमनों या मज़हब के मुख़ालिफ़ों की सज़ा दही के लिये आख़री फ़तवे वेदों से माँगती हो। इस सूरत में वेद अपने दुशमनों के साथी इसी सुलूक का फ़तवा देगा। जिसका कि ऊपर ज़िक्र किया गया है चूँकि इस फ़तवे को अमली जामा पहनाने वाले पुरोहित होते हैं पस पुरोहित अपनी मर्ज़ी या हाकिम की मर्ज़ी या अपने दिली जज़्बात या इन्तक़ाम की सेरी के लिये हस्बे मौक़ा वेद में से अपने मुख़ालिफ़ों की हलाकत का फ़तवा निकाल देगा। इस तरह इलहामी किताब बक़ौल मिस्टर ह्यूम पुरोहितों के हाथ में इन्सानों की रूहों पर जोर व जुल्‍म करने का एक हथियार बना रहा है और बना रह सकता है चूँकि हिन्दुस्तान में हुकूमत करने वाली पार्टी की मुशीरेकार हमेशा पुरोहित क्लास रही है। इसलिये पुरोहित क्लास ने हाकिमों के हाथ से उनही वेदों की तालीम की आड़ में अपने मुख़ालिफ़ों या दुशमनों के साथ जिस बेदर्दी और संगदिली का सुलूक किया है बक़ौल मिस्टर ह्यूम तारीख़ के औराक़ इसकी याद में ख़ून से रंगे हुए हैं। ऐसे हालात में हर एक दयानतदार शख़्स को मिस्टर ह्यूम के मुफ़स्सला ज़ैल सख़्त मगर दुरूस्त अल्फ़ाज़ के साथ बिल्कुल इत्तफ़ाक़ करने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
‘‘ख़्वाह स्वामी दयानन्द इससे दस गुनाह आलिम और नेक दिल भी होता जितना कि वह दरहक़ीक़त है ख़्वाह उसके इरादे इससे सौ गुना नेक आला और बे ग़र्ज़ा न होते जितने कि वह हैं फिर भी ये हर एक शख़्स का ख़्वाह वह कितना ही अदना और कम इल्म हो मगर उसने तारीख़ की शहादत से इस निहायत ही ख़तरनाक अक़ीदे के सख़्त ख़तरनाक नताईज से आगाही हासिल कर ली हो फ़र्ज़ होना चाहिये कि वह कम से कम इस पहलू में स्वामी दयानन्द की बहादुराना मुख़ालफ़त करे जबकि वह इस अक़ीदे को (कि वेद ख़ुदा का कलाम है) बतौर एक सनद के हम से मनवाने की कोशिश करता है और इसको साफ़ अल्फ़ाज़ में बताया जाये कि अगरचे वह दीगर मामलात में एक देवता कहा जा सकता है। मगर इस अक़ीदे में उसकी पोज़िशन एक ऐसे ग़द्दार की पोज़िशन है जो कि इनसानी बेहबूदी और सदाक़त के हक़ में ख़तरनाक ग़द्दारी कर रहा हो।’’ (थ्योसोफ़िस्ट मार्च 1893 ई.)

एक ज़रूरी सवाल
अब यहाँ पर ये ज़रूरी सवाल पैदा होता है स्वामी दयानन्द ने किस किताब को इलहामी के दर्जे से साक़ित करने के लिये जो मैअ़यार क़ायम किया है और जिस मैअ़यार की बिना पर जैसा कि पीछे बयान किया जा चुका है वह अहले इस्लाम की मज़हबी किताब को ख़ुदा की किताब होने के दर्जे से साक़ित कर चुके हैं बिला लिहाज़ इसके कि उन्होंने इसके मतलब को समझाया नहीं। अब जबकि इसी मैअ़यार पर वेदों की तालीम को ख़ुद स्वामी दयानन्द के ही अल्फ़ाज़ में रखकर परखा जाता है तो वेद सिर्फ़ यही नहीं कि ख़ुदा की किताब साबित नहीं होने बल्कि वह एक बदतरीन किताब साबित होते हैं। तो फिर क्या वजह है कि स्वामी दयानन्द ने उनको ख़ुदा का कलाम तसलीम किया। ये एक ऐसा गहरा और पेचीदा सवाल है कि जिसका जवाब स्वामी दयानन्द के नोश्तों के सिवाये दूसरी जगह मिलना मुश्किल है जब स्वामी दयानन्द के नोश्तों को खोला जाता है तो हमें पता लगता है कि स्वामी दयानन्द, दयानतदारी का इस क़द्र मोअ़तक़िद नहीं था। जिस क़द्र कि वह दुशमन को नीचा दिखाने का तरफ़दार था। वह मिस्टर हरबर्ट स्पेन्सर के अल्फ़ाज़ में हक़ व हक्क़ानियत की फ़तह का ज़्यादा ख़्वाहिशमंद था चुनांचे सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में इसके अल्फ़ाज़ मुफ़स्सला ज़ैल हैं।
‘‘अब इसमें ग़ौर करना चाहिये कि अगर जीव ब्रहम की एकता और दुनिया का झूठा होना शंकराचार्य का ज़ाती ऐतक़ाद था तो वह उमदा ऐतक़ाद नहीं और अगर जैनियों की तरदीद के लिये इस ऐतक़ाद को इख़्तियार किया हो तो कुछ अच्छा है।’’ (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 11)
स्वामी दयानन्द की मज़कूरा बाला तहरीर से साफ़ साबित होता है कि अगर मुख़ालिफ़ को नीचा दिखाने के लिये एक ग़लत ऐतक़ाद को दुरूस्त भी मान लिया जाये तो ये कोई गुनाह नहीं है। वह अपने इस उसूल के मुताबिक़ न सिर्फ़ स्वामी शंकराचार्य को ही रियाकार साबित करता है बल्कि वह ख़ुद भी रियाकारी को कोई अख़्लाक़ी गुनाह नहीं मानता और मैं एक वेद मंत्र के ज़रिये पीछे दिखा आया हूँ कि ख़ुद वेद ने इस बात की तालीम दी है कि मुख़ालिफ़ को नीचा दिखाने के लिय तमाम जायज़ और नाजायज़ वसाईल से काम लेना चाहिये। ऐसे वेद मंत्र की मौजूदगी में मुख़ालिफ़ों को सरनगूँ करने की ख़ातिर अगर स्वामी दयानन्द रियाकारी को कोई अख़्लाक़ी गुनाह नहीं समझता तो इसके ज़मीर को कोई तंगी महसूस नहीं हो सकती जबकि वह ये ऐतक़ाद रखता है कि जिस ख़ुदा को वह मानता है या जिस ख़ुदा की तरफ़ वह वेद को मनसूब करता है ख़ुद वह ख़ुदा भी इन्सानों को रियाकारी की इजाज़त देता है लेकिन जो शख़्स इस क़िस्म के अख़्लाक़ी तनज़्ज़ुल की तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करता या जो दयानतदारी को रियाकारी पर तरजीह देता है वह ये मुनासिब समझेगा कि वेदों को इन्सानों की बनायी हुई किताब तसलीम करे बनिसबत इसके कि वह महज़ मुख़ालिफ़ों को नीचा दिखाने के लिए उनको ख़ुदा का कलाम मानकर रियाकारी का जामा ओढ़े। यहाँ पर सवाल किया जायेगा कि स्वामी शंकराचार्य ने तो बुद्धों को नीचा दिखाना था जो ख़ुदा की हस्ती के क़ायल नहीं थे। या वेदों से मुनकिर थे लेकिन स्वामी दयानन्द ने किन लोगों को नीचा दिखाने के लिये दयानतदारी के हथियार को हाथ से फेंक कर वेदों को ख़ुदा का कलाम माना इसका जवाब बड़ा आसान है जबकि ये देखा जाता है कि स्वामी दयानन्द के सामने मुसलमानों ने एक ऐसी किताब को पेश किया जिसको कि वह ख़ुदा का कलाम तसलीम करते थे। स्वामी दयानन्द ने इस किताब को ख़ुदा का कलाम तसलीम करने से इनकार कर दिया और एक किताब की बजाये चार किताबें ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करके मुसलमानों की बात का जवाब दे दिया। इसी तरह जब मसीही लोगों ने बाईबिल के बअज़ नोशतों को पाँच हज़ार साल का पुराना बताया तो स्वामी दयानन्द ने उनकी तरदीद का आसान तरीक़ा ये समझा कि उसने उनके मुक़ाबले में वेदों को एक अरब कई करोड़ बरस का पुराना बता दिया इस तरह इसने पंजाबी की ज़रबुल मिस्ल जाट के सर पर खाट और तेली के सर पर कोल्हू रखने का अमल किया वरना अम्रे वाक़िआ तो ये है कि किसी किताब को इलहामी होने के दर्जे से साक़ित करने के लिए स्वामी दयानन्द ने जो मैअ़यार मुक़र्रर किया है और जो ऊपर दिखाया जा चुका है। इसी मैअ़यार पर परखने से वेद एक बदतरीन किताब साबित होती है। क्योंकि इसमें अपने दुशमनों के साथ महज़ इस बिना पर कि हम इनको अपना दुशमन समझते हैं ऐसे ज़ालिमाना सुलूक की तालीम दी गयी है जिसका कि इस किताब में जिसको कि स्वामी दयानन्द वहशियों की किताब क़रार देता है। नाम व निशान भी नहीं मिलता ये तालीम कि इन लोगों से जो तुम को तंग करते हैं या तुम पर जुल्‍म करते हैं या तुम्हारे अयाल व अतफ़ाल को अनवाअ़ व अक़साम की तकालीफ़ पहुँचाते हैं। तुम उनको मुक़ाबले में अपने आप को डिफे़न्ड करो। इस क़द्र ख़ौफ़नाक नहीं है, जिस क़द्र कि ये तालीम ख़तरनाक है कि तुम लोगों को ज़िन्दा आग में जला दो। समन्दर में ग़र्क़ कर दो। शेर के मुँह में डाल दो, दरिन्दों से चरवा दो, जो ख़्वाह तुम से किसी क़िस्म की दुशमनी या अनाद न रखते हों तुम उनसे नाख़ुश हो, या उनको बुरा समझते हो, या उनसे दुशमनी रखते हो, ये ऐसी तालीम है ख़ुदा का ज़ाबता तो एक तरफ़ दुनिया के मुरव्वजा क़वानीन के मुताबिक़ भी क़ाबिले तारीफ़ नहीं कही जा सकती क्योंकि जहाँ मुरव्वजा क़वानीन गवर्नमेन्ट सेल्फ़ डिफ़ेन्स को बअज़ हालात में जुर्म क़रार नहीं देते वहाँ वह ऑफे़न्सो पोलीसी को मतऊन गरदांते हैं। ये ताज्जुब की बात है कि स्वामी दयानन्द सेल्फ़ डिफे़न्स की तालीम को तो वहशियों की तालीम बताता है। लेकिन वह आफे़न्सो पोलीसी की तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करता है हालाँकि कोई दयानतदार शख़्स अपनी आँख के शहतीर को तिनका और दूसरे की आँख के तिनके को शहतीर ज़ाहिर नहीं करेगा। बल्कि इसकी दयानतदारी का तक़ाज़ा ये होगा कि तिनका ख़्वाह मुखा़लिफ़ की आँख में हो ख़्वाह इसकी अपनी आँख में हो वह इसको तिनका ही कहे और हत्ताउल मक़दूर उसको निकालने की कोशिश करे। मगर जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है कि स्वामी दयानन्द ने अपने मुख़ालिफ़ों की किताबों के तिनके को शहतीर और वेदों के शहतीरों को तिनके बल्कि सुर्मे के ख़ूबसूरत डोरे ज़ाहिर किया है। इसकी वजह सिवाये इसके कुछ नहीं हो सकती है कि वह मुहक्किक की पोज़िशन में मिस्टर हरबर्ट स्पेन्सर के अल्फ़ाज़ में मुल्की, क़ौमी, नसली और पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद नहीं था। चुनांचे इनकी तहरीर से जाबजा इस बात का पता लगता है मसलन् वह ब्रहमो समाजियों का खंडन करते हुए लिखते हैं -
(1) वेद विद्या से बे बहरा लोगों के ख़्यालात बिल्कुल सच्चे क्योंकर हो सकते हैं...
उन लोगों में अपने मुल्क की हमदर्दी बहुत कम है, उन्होंने ईसाइयों के चलन बहुत से इख़्तियार किये हैं।
(2) अपने मुल्क की तारीफ़ या बुज़्ाुर्गों की बड़ाई करनी तो दूर रही इसके अवज़ में पेट भरकर मज़म्मत करते हैं। लेकचरों में ईसाई वग़ैरह अंग्रेज़ों की तारीफ़ दिल खोलकर करते हैं। ब्रहमा वगै़रह महर्षियों के नाम भी नहीं लेते।’’
(3) भला जब आर्यवृत्त में पैदा हुए और इस मुल्क का आबो दाना खाया पिया और अब भी खाते पीते हैं तो अपने माँ बाप दादा के रास्ते को छोड़कर दीगर गै़र मुमालिक के मज़हबों की तरफ़ ज़्यादा माइल हो जाना और ब्रहम समाजी और प्रार्थना समाजियों का इस मुल्क में रहकर इल्म संस्कृत से बेबहरा होकर अपने को आलिम ज़ाहिर करना। अंग्रेज़ी पढ़कर पंडित का घमण्ड करना और फ़ौरन् एक मज़हब चलाने के लिये राग़िब हो जाना ये इन्सानों के लिए मुस्तहकम और उनकी तरक्क़ी करने वाला काम क्योंकर हो सकता है।
(4) अंग्रेज़ मुसलमान चन्डाल वगै़रह से भी खाने पीने की तमीज़ नहीं रखी .... उन्होंने यही समझा होगा कि खाने और ज़ात का इम्तियाज़ तोड़ने से हम और हमारा मुल्क सुधर जायेगा लेकिन ऐसी बातों से सुधार तो कहाँ है उल्टा बिगाड़ होता है।
(5) जब कुल सच्चाइयाँ वेदों से हासिल होती हैं जिनमें कि झूठ ज़रा भी नहीं है तो उनके तसलीम करने में शक करना अपना और दूसरेका महज़ नुक़सान करना है। इसी वजह से तुम को आर्य वृत्ती लोग अपना नहीं समझते और तुम आर्य वृत की तरक्क़ी का बाइस भी नहीं हो सकते।
(6) भला वेद वगै़रह सच्चे शास्त्रों को माने बगै़र तुम अपने क़ौल की सच्चाई और झूठ की आज़माईश और आर्य वृत की तरक्क़ी भी कभी कर सकते हो। जिस मुल्क को बीमारी हुई है उसकी दवाई तुम्हारे पास नहीं है और यूरोपियन लोग तुम्हारी परवाह नहीं करते और आर्य वृती लोग तुमको दीगर मज़हब वालों की मानिन्द समझते हैं। अब भी समझ कर वेद वग़ैरह की क़द्र करने से मुल्क की तरक्क़ी करने लगो तो भी अच्छा है।’’
(7) हम और आप को निहायत मुनासिब है कि जिस मुल्क की अश्या से अपना जिस्म बना और अब भी परवरिश पा रहा है और आइन्दा पायेगा उसकी तरक्क़ी तन धन से सब लोग फ़िक्र मुहब्बत से करें इसलिये जैसा कि आर्य समाज मुल्क आर्यवृत की तरक्क़ी का बाइस है वैसा और कोई नहीं हो सकता। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 11)
मज़कूरा बाला चन्द इक़तबासात से पता लग सकता है कि स्वामी दयानन्द मुल्की क़ौमी, नसली और पैदाइशी तअस्सुबात का शिकार था, गो इससे इसका आला दर्जे का पोलिटिकल रिफ़ॉर्मर और देशभक्त होना तो साबित होता है जो कि कोई गुनाह की बात नहीं है लेकिन वह बे लाग मुहक्‍क‍िक और सदाक़त को तरफ़दार नहीं था। यही वजह है कि दीगर मज़हबी कुतुब के असली या फ़र्ज़ी उयूब के बरखि़लाफ़ तो वह बेरहमी से कुल्हाड़ा चलाता गया। लेकिन जब उनसे हज़ार दर्जे बढ़कर उयूब इसको वेदों में नज़र आये तो इसका हाथ काँप गया। वह सिर्फ़ यही नहीं कि उन उयूब के बरख़िलाफ़ आवाज़ न उठा सका बल्कि उसने एक मामता की मारी हुई माँ की तरह जो दूसरे के बच्चों को ख़्वाह वह कैसे ही ख़ूबसूरत और साफ़ सुथरे हों नफ़रत करती हो और अपने पेट से पैदा शुदा बच्चे को ख़्वाह वह कैसा ही लूला, लंगड़ा, लंुजा और अंधा हो चूम चाटकर छाती से लगा लेती हो। वेदों की मज़कूरा बाला सख़्त ख़तरनाक तालीम को अपने मैअ़यार और उसूल के बरखि़लाफ़ पाकर भी निहायत ही प्यार और मुहब्बत के साथ सिर्फ़ अपने दिल में जगह दी बल्कि उनको ख़ुदावंदे कुद्दूस की किताब तसलीम किया। इन तमाम हालात का मुतालेअ़ा करके हर एक हक़ पसन्द शख़्स इस नतीजे पर पहुँचेगा कि वेदों को ख़ुदा का कलाम तसलीम करने में स्वामी दयानन्द ने दयनतदारी को रियाकारी पर कुर्बान कर दिया और अपने इस फ़अ़ल की ताईद में इसने स्वामी शंकराचार्य को भी अपने साथ मिला लिया’’ जैसा कि पीछे दिखाया जा चुका है। मिस्टर ह्यूम के अल्फ़ाज़ में हक़ व हक्क़ानियत के तमाम आशिक़ों को इस बात पर वाक़ई अफ़सोस करना चाहिये।
भाग 2
doosri kist  

1 comment:

haq.parkash said...

भाषार्थः वेद वाणी तू वेद निन्‍दक को काट डाल, चीर डाल, फाड डाल, जला दे, फूंक दे, भस्‍म कर दे 5- 62 अथर्व वेदभाष्‍ये

भावार्थः धर्मात्‍मा लोग अधर्मियों के नाश करने में सदा उद्यत रहें 12-5- 62 अथर्व वेदभाष्‍ये
http://www.aryasamajjamnagar.org/atharvaveda_v2/pages/p576.gif


भावार्थ- जो मनुष्‍य अज्ञानी होकर वेदविरूद्ध कुकर्म करे, उसको विद्वान् लोग पूरा दण्‍ड देवें- सूञ 12-5- 59 अथर्व वेद भाष्‍ये

जो मनुष्‍य बलवती वेदवाणी के विरूद्ध आचरण करे, उसको यथावत् दण्‍ड मिले सूञ 5- 60 अथर्व वेदभाष्‍ये

वेद विरोधी दुराचारी पुरूष को न्‍याय व्‍यवस्‍था से जला कर भस्‍म कर डाले 5- 61 अथर्व वेदभाष्‍ये

धर्मात्‍मा लोग अधर्मियों के नाश करने में सदा उद्यत रहें 5- 62 अथर्व वेदभाष्‍ये